रविवार, 15 दिसंबर 2013

मटर की खेती से धनवर्षा


                                                                  डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर                                                                    सस्य विज्ञान विभाग
                                                       इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर


                   संसार की एक महत्वपूर्ण फसल मटर को दलहनों की रानी की संज्ञा प्राप्त है। मटर की खेती, हरी फल्ली, साबूत मटर तथा दाल के लिये की जाती है। मटर की हरी फल्लियाँ सब्जी के लिए तथा सूखे दानों का उपयोग दाल और  अन्य भोज्य पदार्थ तैयार करने में  किया जाता है। चाट व छोले बनाने में मटर का विशिष्ट स्थान है । हरी मटर के दानों को सुखाकर या डिब्बा बन्द करके संरक्षित कर बाद में उपयोग किया जाता है। पोषक मान की दृष्टि से मटर के 100 ग्राम  दाने में औसतन 11 ग्राम पानी, 22.5 ग्राम प्रोटीन, 1.8 ग्रा. वसा, 62.1 ग्रा. कार्बोहाइड्रेट, 64 मिग्रा. कैल्शियम, 4.8 मिग्रा. लोहा, 0.15 मिग्रा. राइबोफ्लेविन, 0.72 मिग्रा. थाइमिन तथा 2.4 मिग्रा. नियासिन पाया जाता है। फलियाँ निकालने के बाद हरे व सूखे पौधों का उपयोग पशुओं के चारे के लिए किया जाता है।  दलहनी फसल होने के कारण इसकी खेती से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। हरी फल्लिओं के  लिए मटर की खेती करने से उत्तम खेती और सामान्य परिस्थिओं में प्रति एकड़ 50-60 क्विंटल हरी फल्ली प्राप्त होती है जिसका  बाजार मूल्य 10 रुपये प्रति किलोग्राम भी जोड़ा जाये तो  कुल राशि  50-60 हजार रुपये आती है, जिसमे 15-20  हजार रुपए खेती का खर्च घटा दिया जाये तो शुद्ध 35-40 हजार रुपये का मुनाफा  पर प्राप्त हो सकता है। कम समय में अधिक मुनाफा कमाने के लिए यह एक अच्छा विकल्प है। इसके अलावा अगली फसल के लिए खेत भी शीघ्र रिक्त हो जाता है, यानि कि सोने पर सुहागा।  छत्तीसगढ प्रदेश में मटर की खेती कुल 47.65 हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल  में प्रचलित है, जिससे 26.45 हजार टन दाना उपज  प्राप्त है । प्रदेश में मटर के दानों की औसत उपज बहुत कम ( 555 किग्रा./हैक्टर) है, जिसे बढ़ाने हेतु किसान भाइयों को  आधुनिक सस्य तकनीक को  आत्मसात करना  होगा ।  प्रति इकाई अधिकतम हरी फल्लियाँ अथवा दानो की उपज प्राप्त करने हेतु आधुनिक सस्य तकनीक अग्र प्रस्तुत है-

भूमि का चुनाव
                मटर के लिए उपजाऊ तथा जलनिकास वाली मिट्टी सर्वोत्तम है। इसकी खेती के लिए मटियार दोमट और दोमट मिट्टियाँ उपयुक्त रहती हैं। सिंचाई की सुविधा होने पर बलुआर दोमट भूमियों में भी मटर की खेती की जा सकती है। छत्तीसगढ़ में  खरीफ में पड़ती भर्री-कन्हार एवं सिंचित डोरसा-भूमि में दाल वाली मटर या बटरी की खेती की जाती है। अच्छी फसल के लिए मृदा का पीएच मान 6.5 - 7.5 होना चाहिए।

खेत की तैयारी

                रबी की फसलों की तरह मटर के लिए खेत तैयार किया जाता है। खरीफ की फसल काटने के बाद मिट्टी पलटने वाले हल से एक जुताई की जाती है। तत्पश्चात् 2 - 3 जुताइयाँ देशी हल से की जाती है। प्रत्येक जुताई के बाद खेत में पाटा चलाना आवश्यक है,जिससे ढेले टूट जाते हैं और भूमि में नमी का संरक्षण होता है। बोआई के समय खेत में पर्याप्त नमी का होना आवश्यक है।

उन्नत किस्मों का चयन 

                मटर की हरी फलियों   वाली किस्मों  को  गार्डन पी तथा दाल के लिए उपयोगी किस्मों को फील्ड पी कहा जाता है । कम समय में आर्थिक लाभ के लिए मटर की खेती   हरीफल्लिओं  के लिए करना चाहिए। दोनों  प्रकार की मटर की प्रमुख उन्नत किस्मों  का विवरण अग्र प्रस्तुत  है .

दाल वाली मटर की उन्नत किस्मों की विशेषताएँ

किस्म का नाम                   अवधि (दिन)   उपज(क्विंटल /हे.)          अन्य विशेषताएं
अंबिका                               100-125              15-20              ऊँचे पौधे , भभूतिया रोग प्रतिरोधक
रचना                                  115-120              15-20              ऊँचे पौधे, भभूतिया रोग प्रतिरोधक
जे.पी. 885                           120-125              15-18              ऊँचे पौधे, भभूतिया रोग सहनशील
अर्पणा (एचएफपी-4)           100-120               20-25             प्रथम बौनी किस्म 1988 में विकसित
केपीएमआर.144-1(सपना)  100-120              18-20              भभूतिया रोग प्रतिरोधक, बौने पौधे
के.पी.एम.आर.400 (इन्द्र)    120-125               18-20              बौने पौधे, भभूतिया रोग प्रतिरोधक
आई.पी.एफ.99-25                90-100               15-16              बौने पौधे
विकास                                 90-100               15-16              बौने पौधे, भभूतिया रोग प्रतिरोधक
पारस                                   115-120              18-20              बौने पौधे, भभूतिया रोग प्रतिरोधक

सब्जी वाला मटर की उन्नत किस्मों  की विशेषताएँ

आर्केल: यह यूरोपियन झुर्रीदार बौनी लोकप्रिय किस्म है, । बुआई के 60 दिन बाद इसकी फल्लियाँ तोड़ने योग्य हो जाती हैं। फल्लियाँ 80 - 10 सेमी. लम्बी होती है ,जिसमें 5 - 6 दाने होते है । हरी फल्लियों की उपज 80 - 90 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर तथा इनकी तुड़ाई तीन बार में करते है ।
बोनविले: यह अमेरिकन किस्म है। बीज झुर्रीदार तथा फल्लियाँ 80-90 दिन बाद तोड़ने योग्य हो जाती है। फूल की शाखा पर दो फल्लियाँ लगती है। हरी फल्लियों की उपज 100-120 क्विंटल/हेक्टेयर तक होती है।
जवाहर मटर 5: यह  हरी फल्ली प्रदान करने वाली किस्म है । इसकी फल्लियाँ 65-70 दिन बाद तोड़ने योग्य हो जाती है। प्रत्येक फल्ली में 5 - 6 दाने बनते है । फल्लियों की उपज क्षमता 80-90 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर है।
जवाहर पी-83:
मध्य समय में तैयार ह¨ने वाली किस्म है जो भभूतिया रोग प्रतिरोधक भी है। पौधे छोटे , प्रति फली 8 दाने बनते है तथा 120-130 क्विंटल  हरी फल्लियों  की उपज क्षमता है ।

बीज दर एवं बीजोपचार

                       बीज की मात्रा बोने के समय, किस्म और बोने कि विधि पर निर्भर करती है। स्वस्थ एवं प्रमाणित बीज ही प्रयोग करना चाहिए। अगेती बौनी किस्मों की बीज दर 100 - 120 किग्रा. तथा देर से पकने वाली लम्बी किस्मों के लिए 80-90 किग्रा. प्रति हेक्टेयर बीज पर्याप्त रहता है।  बीज तथा भूमि जनित बीमारियों से बीज एवं पौधों की सुरक्षा के लिए थायरम या बाविस्टीन 3 ग्राम प्रति किलो बीज के हिसाब से बीजोपचार अवश्य करें। इसके पश्चात् बीज को राइजोबियम कल्चर एवं पी.एस.बी. कल्चर 5 ग्राम प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित कर छाया में सुखाकर सुबह या शाम को बोआई करना चाहिए।

बोआई का समय

     मटर की अच्छी उपज लेने के लिए इसकी बोआई मध्य अक्टूबर से मध्य नवम्बर तक कर देना चाहिए। सिंचित अवस्था में बोआई 30 नवम्बर तक की जा सकती है। देर से बोआई करने पर उपज घट जाती है। हरी फल्लियों के लिए मटर की बोआई 20 सितम्बर से 15 अक्टूबर तक करना चाहिए। सितम्बर में बोई गई फसल में उकठा रोग होने ने की संभावना रहती है ।

बोने की विधियाँ

                 मटर की बोआई अधिकतर हल के पीछे कूड़ों में की जाती है। अगेती बौनी किस्मों को 30 सेमी. तथा देर से पकने वाली किस्मों को 45 सेमी. की दूरी पर कतारों में  बोना चाहिए।  मटर की बोआई के लिए सीड ड्रील का भी उपयोग किया जा सकता है। पौधे से पौधे की दूरी 8-10 सेमी. तथा बीज की बोआई 4 - 5 सेमी. की गहराई पर करनी चाहिए। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में अथवा बिलम्ब से तैयार होने वाली मटर की किस्मो को जमीन से उठी हुई क्यारियों  (120-150 सेमीं चौड़ी क्यारी जिनके बीच में नाली छोड़ी जाती है) में बोना अच्छा रहता है ।

खाद एवं उर्वरक

                    मटर की अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए संतुलित मात्रा  में खाद एवं उर्वरक देना आवश्यक है ।  सिंचित दशा में ख्¨त की अन्तिम जुताई के समय 8-10 टन प्रति हैक्टर गोबर की खाद या कम्पोस्ट मिट्टी में मिला देना चाहिए । उर्वरको  की सही मात्रा  का निर्धारण मृदा परीक्षण के आधार पर किया जा सकता है । दलहन फसल ह¨ने के कारण मटर क¨ नाइट्र¨जन की अधिक आवश्यकता नहीं होती है । सामान्यत: मटर  फसल में 25-30 कि. ग्रा. नत्रजन 40 - 50 किग्रा. स्फुर तथा 20 किग्रा. पोटाश तथा 20 किग्रा. सल्फर प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के पहले कूंडों में  देना चाहिए। असिंचित दशा में नत्रजन की मात्रा (20 किग्रा.) प्रयोग करना चाहिए।  यथासंभव उर्वरको को कूड़ में बीज से 2.5 सेमी. नीचे तथा 7-8 सेमी दूर डालना चाहिए । जस्ते की कमी वाले क्षेत्रों में 0.5 प्रतिशत जिंक सल्फेट और  0.25 प्रतिशत चूना का घोल बनाकर रोग के लक्षण दिखते ही फसल पर छिड़क देना चाहिए ।

सिंचाई

             वैसे तो मटर की फसल  प्रायः असिंचित क्षेत्रों में उगाई जाती है, परन्तु मटर की अच्छी उपज लेने के लिये दो सिचाई  प्रथम  बुवाई के 30 - 35 दिन बाद एवं द्वितीय 60 से 65 दिन बाद करना चाहिए। यथासंभव स्प्रिंकलर द्वारा सिंचाई करें या खेत में 3 मीटर की दूरी में नालियाँ बनाकर रिसाव पद्धति द्वारा सिंचाई करें। मटर में सदैव हल्की सिंचाई करनी चाहिये,क्योंकि अधिक पानी होने पर फसल पीली पड़कर सूख जाती है।

खरपतवार नियंत्रण

                       मटर में निराई-गुड़ाई फसल बोआई के 35 - 40 दिन बाद करने से खरपतवार समस्या कम हो जाती है। मटर की ऊँची किस्मों  के  सीधे  खड़े रहने के लिए, जब पौधे 15 सेमी. ऊँचाई के हो  जावें तब  लकड़ी की खूंटियों  का सहारा देना नितान्त आवश्यक रहता है । रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण के लिए बोआई के पहले खरपतवारनाशी जैसे बासालीन 0.75 लीटर या पेंडिमेथालीन 1 किलो सक्रिय तत्व अथवा मेट्रीब्यूजिन 1-1.5 किग्रा प्रति हैक्टर की दर से 800 - 1000 लीटर पानी में घोलकर फ्लेट फेन नोजल से छिड़काव कर मिट्टी में मिला देने से खरपतवार प्रकोप कम हो  जाता है।

कीट नियंत्रण

               मटर की फसल में तना छेदक, रोयेंदार गिडार, फली बेधक, लीफ माइनर तथा एफिड कीटों  का प्रकोप देखा गया है। तना बेधक की रोकथाम के लिए बोने से पूर्व 30 किग्रा. फ्यूराडान 3 जी प्रति हेक्टेयर की दर से खेत मे मिला देनी चाहिए। पत्ती खाने वाली इल्ली तथा फली बेधक कीट को नष्ट करने के लिए  मेलाथियान 50 ई. सी. की 1.25 लीटर की मात्रा को 500 - 600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़कना चाहिए। एफिड और लीफ माइनर के नियंत्रण हेतु मोनोक्रोटोफास 600 मिली. प्रति हेक्टेयर की दर से 600 लीटर पानी मे घोलकर फसल पर छिड़कना चाहिए। दवा का छिड़काव करने के 10 - 15 दिन पश्चात् फल्लियों  को सब्जी के लिए तोड़ना चाहिए।

रोग नियंत्रण

                    मटर के मुख्य रूप से उकठा, गेरूई, पाउडरी मिल्ड्यू तथा जड़ विगलन रोग लगता है। मटर की फसल जल्दी बोने से उकठा व जड़ विगलन रोग का प्रकोप होने की संम्भाावना होती है। इनकी रोकथाम के लिए बीज को  थीरम 2 ग्राम प्रति  किलो बीज की दर से उपचारित कर बोना चाहिए। अधिक नमी वाले मौसम में या पछेती किस्मों में पाउडरी मिल्ड्यू रोग का प्रकोप अधिक होता है। रोग रोधी किस्म जैसे अपर्णा आदि लगायें। इस रोग की रोगथाम के लिए घुलनशील  सल्फर जैसे सल्फेक्स या हैक्सासाल 3 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से 1000 लीटर पानी में घोलकर 2 - 3 छिड़़काव करना चाहिए ।  गेरूई (रस्ट) रोग से बचाव हेतु डाइथेन एम-45 या डाइथेन जेड-78, 2 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से 1000 लीटर पानी में घोलकर 2 - 3 बार छिड़काव करते है।

कटाई एवं गहाई

               हरी  फल्लियों के लिए बाई गई फसल दिसम्बर - जनवरी में फल्लियाँ देती है। फल्लियों को 10 - 12 दिन के अतर पर 3 - 4 बार में तोड़ना चाहिए। तोड़ते समय फल्लियाँ पूर्ण रूप से भरी हुई होना चाहिए, तभी बाजार में अच्छा भाव मिलेगा। दानो वाली फसल मार्च अन्त या अप्रैल के प्रथम सप्ताह में पककर तैयार हो जाती है। फसल अधिक सूख जाने पर फल्लियाँ खेत में ही चटकने लगती है  । इसलिये जब फल्लियाँ पीली पड़कर सूखने लगे  उस समय कटाई कर लें। फसल को एक सप्ताह खलिहान में सुखाने के बाद बैलो की दाँय चलाकर गहाई करते है । दानों को साफ कर 4 - 5 दिन तक सुखाते है  जिससे कि दानों मै  नमी का अंश 10 - 12 प्रतिशत तक रह जाये।

उपज एवं भण्डारण

                       मटर की हरी फल्लियों की पैदावार 150 -200 क्विंटल  तथा फल्लियाँ  तोड़ने के पश्चात् 150 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर तक हरा चारा  प्राप्त होता है। दाने वाली फसल से औसतन 20 - 25 क्विंटल  दाना और 40 - 50 क्ंिवटल प्रति हेक्टेयर भूसा  प्राप्त होता है। जब दानों  मे नमी 8 - 10 प्रतिशत रह जाये तब सूखे व स्वच्छ स्थान पर दानो  को  भण्डारित  करना चाहिए।

दलहनों का सरताज-चना लगायें मालामाल हो जायें

                                                     

डाँ. गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (सस्य विज्ञान विभाग)
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, कृषक नगर,
रायपुर (छत्तीसगढ़)

                                                                रबी में चना बाजे घना 

                        चना  भारत की सबसे महत्वपूर्ण दलहनी फसल है। चने को दालों का राजा कहा जाता है। पोषक मान की दृष्टि से चने के 100 ग्राम दाने में औसतन 11 ग्राम पानी, 21.1 ग्राम प्रोटीन, 4.5 ग्रा. वसा, 61.5 ग्रा. कार्बोहाइड्रेट, 149 मिग्रा. कैल्सियम, 7.2 मिग्रा. लोहा, 0.14 मिग्रा. राइबोफ्लेविन तथा 2.3 मिग्रा. नियासिन पाया जाता है। चने का प्रयोग दाल एवं रोटी के लिए किया जाता है। चने को पीसकर बेसन तैयार किया जाता है ,जिससे विविध व्यंजन बनाये जातेहैं। चने की हरी पत्तियाँ साग बनाने, हरा तथा सूखा दाना सब्जी व दाल बनाने में  प्रयुक्त होता है।  दाल से अलग किया हुआ छिलका और  भूसा भी पशु चाव से खाते है । दलहनी फसल होने के कारण यह जड़ों में वायुमण्डलीय नत्रजन स्थिर करती है,जिससे खेत त की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। अतः फसल चक्र में चने का महत्वपूर्ण स्थान है। देश में दलहनों की कमी होने और पोषण में चने के महत्व तथा विविध उपयोग के कारण बाजार में चने और इसके उत्पाद की खशी मांग रहती  है।  इस प्रकार से चने की खेती करने से किसानों को अच्छा मुनाफा होता है साथ ही खेत की  उर्वरता में भी बढ़ोत्तरी होती है जिससे आगामी फसल की उपज में भी इजाफा होता है।   भारत में चने की खेती 7.89 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में की जाती है, जिससे 895 किग्रा. प्रति हेक्टेयर के औसत मान से 7.06 मिलियन टन उत्पादन प्राप्त हुआ है ।   छत्तीसगढ़ में राज्योदय के  समय जहाँ 236.80 हजार हैक्टर रकबे में चना लगाया जाता था जिसका क्षेत्र  अब बढ़कर   345.23 हजार हैक्टर हो  गया जिससे  प्रदेश में 369.40 हजार मेट्रिक टन चने का उत्पादन हुआ । यद्यपि चने की औसत उपज कम ( 1070 किग्रा प्रति हैक्टर) है, परन्तु राज्य की भूमि और जलवायु चने की उपज बढ़ाने हेतु अनुकूल है ।  शीघ्र तैयार होने वाली धान की किस्मों  की कटाई  पश्चात उपलब्ध नमीं में चने की खेती वैज्ञानिक तरीके  से की जाए तो  किसानो  को  भरपूर उपज प्राप्त हो  सकती है । चने की खेती से अधिकतम उपज लेने के  लिए नवीन सस्य तकनीक अग्र  प्रस्तुत है ।

भूमि का चुनाव एवं खेत की तैयारी

                          सामान्यतौर पर चने की खेती हल्की से भारी भूमियों में की जाती है,किंतु अधिक जल धारण क्षमता एवं उचित जल निकास वाली भूमियाँ सर्वोत्तम रहती है। छत्तीसगढ़ की डोरसा, कन्हार भूमि इसकी खेती हेतु उपयुक्त है। मृदा का पी-एच मान 6-7.5 उपयुक्त रहता है। चने की ख्¨ती के लिए अधिक उपजाऊ भूमियाँ उपयुक्त नहीं होती,क्योंकि उनमें फसल की बढ़वार अधिक हो जाती है जिससे  फूल एवं फलियाँ कम बनती हैं।
                     चना की खेती के  लिए मिट्टी का बारीक होना आवश्यक नहीं है, बल्कि ढेलेदार खेत ही चने की उत्तम फसल के  लिए अच्छा समझा जाता है । खरीफ फसल कटने के बाद नमी की पर्याप्त मात्रा  होने पर एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा दो जुताइयाँ देशी हल या ट्रेक्टर से की जाती है और फिर पाटा चलाकर खेत समतल कर लिया जाता है।  दीमक प्रभावित खेतों में क्लोरपायरीफास 1.5 प्रतिशत चूर्ण 20 किलो प्रति हेक्टर के हिसाब से जुताई के दौरान मिट्टी में मिलना चाहिए। इससे कटुआ कीट पर भी नियंत्रण होता है।

उन्नत किस्मों का चयन 

                    देशी चने का रंग पीले से गहरा कत्थई या काले तथा दाने का आकार छोटा होता है। काबुली चने का रंग प्रायः सफेद होता है। इसका पौधा देशी चने से लम्बा होता है। दाना बड़ा तथा उपज देशी चने की अपेक्षा कम होती है। छत्तीसगढ़ के लिए अनुशंसित चने की प्रमुख किस्मों की विशेषताएँ यहां प्रस्तुत है: .
वैभव: इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित यह किस्म सम्पूर्ण छत्तीसगढ़  के लिए उपयुक्त है। यह किस्म 110 - 115 दिन में  पकती है। दाना बड़ा, झुर्रीदार तथा कत्थई रंग का होता है।  उतेरा के लिए भी यह उपयुक्त है। अधिक तापमान, सूखा और उठका निरोधक किस्म है,जो सामान्यतौर पर 15 क्विंटल तथा देर से बोने पर 13 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है।
जेजी-74: यह किस्म 110-115 दिन में  तैयार हो जाती है । इसकी पैदावार लगभग 15 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
उज्जैन 21: इसका बीज खुरदरा होता है। यह जल्दी पकने वाली जाति है जो 115 दिन में तैयार हो जाती है। उपज 8 से 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। दाने में 18 प्रतिशत प्रोटीन होती है।
राधे: यह किस्म 120 - 125 दिन में पककर तैयार होती है । यह 13 से 17 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज होती है।
जे. जी. 315: यह किस्म 125 दिन में पककर तैयार हो जाती है। औसतन उपज 12 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।  बीज का रंग बादामी, देर से बोनी हेतु उपयुक्त है।
जे. जी. 11: यह 100 - 110 दिन में पककर तैयार होने वाली नवीन किस्म है । कोणीय आकार का बढ़ा बीज  होता है। औसत उपज 15 से 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। रोग रोधी किस्म है जो सिंचित व असिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है।
जे. जी. 130: यह 110 दिन में पककर तैयार होने वाली नवीन किस्म है। पौधा हल्के फैलाव वाला, अधिक शाखाएँ, गहरे गुलाबी फूल, हल्का बादामी चिकना  है। औसत उपज 18 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।
बीजी-391: यह चने की देशी बोल्ड दाने वाली किस्म है जो  110-115 दिन में तैयार होती है तथा प्रति हेक्टेयर 14-15 क्विंटल उपज देती है । यह उकठा निर¨धक किस्म है ।
जेएकेआई-9218: यह भी देशी चने की बोल्ड दाने  की किस्म है । यह 110-115 दिन में तैयार होकर 19-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है । उकठा रोग प्रतिरोधक किस्म है ।
विशाल:
चने की यह सर्वगुण सम्पन्न किस्म है जो कि 110 - 115 दिन में तैयार हो जाती है। इसका दाना पीला, बड़ा एवं उच्च गुणवत्ता वाला होता है । दानों से सर्वाधिक (80%) दाल प्राप्त होती है। अतः बाजार भाव अधिक मिलता है। इसकी उपज क्षमता 35क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
काबुली चना
काक-2:
यह  120-125  दिनों में पकने वाली किस्म है । इसकी औसत उपज 15 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। यह भी उकठा निरोधक किस्म है ।
श्वेता (आई.सी.सी.व्ही. - 2): काबुली चने की इस किस्म का दाना आकर्षक मध्यम आकार  का होता है। फसल 85 दिन में तैयार होकर औसतन 13 - 20 क्विंटल उपज देती है। सूखा और सिंचित क्षेत्रों के लिए उत्तम किस्म है। छोला अत्यंत स्वादिष्ट तथा फसल शीघ्र तैयार होने के कारण बाजार भाव अच्छा प्राप्त होता है।
जेजीके-2: यह काबुली चने की 95-110 दिन में तैयार होने वाली  उकठा निरोधक किस्म है जो  कि 18-19 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है ।
मेक्सीकन बोल्ड: यह सबसे बोल्ड  सफेद, चमकदार और आकर्षक चना है। यह 90 - 95 दिन में पककर तैयार हो जाती है । बड़ा और स्वादिष्ट दाना होने के कारण बाजार भाव सार्वाधिक मिलता है। औसतन 25 - 50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है। यह कीट, रोग व सूखा सहनशील किस्म है।
हरा चना
जे.जी.जी.1:
यह किस्म 120 - 125 दिन में पककर तैयार होने वाली हरे चने की किस्म है। औसतन उपज 13 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
हिमा:
यह किस्म 135 - 140 दिन में पककर तैयार हो जाती है एवं औसतन 13 से 17 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। इस किस्म का बीज छोटा होता है 100 दानों का वजन 15 ग्राम है।

बोआई करें सही समय पर 

                  चने की बुआई समय पर करने से फसल की वृद्धि अच्छी होती है साथ ही कीट एवं बीमारियों से फसल की रक्षा होती है, फलस्वरूप उपज अच्छी मिलती है । अनुसंधानो  से ज्ञात होता है कि  20 से 30 अक्टूबर तक चने की बुवाई करने से सर्वाधित उपज प्राप्त होती है। असिंचित क्षेत्रों में अगेती बुआई सितम्बर के अन्तिम सप्ताह से अक्टूबर के तृतीय सप्ताह तक करनी चाहिए। सामान्यतौर पर अक्टूबर अंत से नवम्बर का पहला पखवाड़ा बोआई के लिए सर्वोत्तम रहता है। सिंचित क्षेत्रों में पछेती बोआई दिसम्बर के तीसरे सप्ताह तक संपन्न कर लेनी चाहिए। उतेरा पद्धति से बोने हेतु अक्टूबर का दूसरा पखवाड़ा उपयुक्त पाया गया है।
              छत्तीसगढ़ में धान कटाई के बाद दिसम्बर के प्रथम सप्ताह तक चने की बोआई की जा सकती है,जिसके लिए जे. जी. 75, जे. जी. 315, भारती, विजय, अन्नागिरी आदि उपयुक्त किस्में है । बूट हेतु चने की बोआई सितम्बर माह के अंतिम सप्ताह से अक्टूबर माह के प्रथम सप्ताह तक की जाती है। बूट हेतु चने की बड़े दाने वाली किस्में जैसे वैभव, पूसा 256, पूसा 391, विश्वास, विशाल, जे.जी. 11 आदि लगाना चाहिए।

उपयुक्त बीज दर-सही पौध-अधिक उपज 

                     चने की समय पर बोआई करने के लिए देशी चना (छोटा दाना) 75 - 80 कि.ग्रा/हे. तथा देशी चना (मोटा दाना) 80 - 10 कि.ग्रा./हे., काबुली चना (मोटा दाना) - 100 से 120 कि.ग्रा./हे. की दर से बीज का प्रयोग करना चाहिए। पछेती बुवाई हेतु देशी चना (छोटा दाना) - 80 - 90 किग्रा./हे. तथा देशी चना (मोटा दाना) - 100 से 110 कि.ग्र./हे. तथा उतेरा पद्धति से बोने के लिए 100 से 120 किग्रा./हे. बीज पर्याप्त रहता है। सामान्य तौर बेहतर उपज के लिए   प्रति हेक्टेयर लगभग 3.5 से 4 लाख की पौध सख्या अनुकूल मानी जाती है।

रोग-दोष से वचने करें बीजोपचार

                   अच्छे अंकुरण एवं फसल की रोगों से सुरक्षा के लिए बीज शोधन अति आवश्यक है। बीज को थाइरम 2 ग्राम  अथवा ट्राइकोडर्मा 4 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। इसके बाद श¨धित बीज क¨ चने के राइजोबियम कल्चर से अवश्य उपचारित करना चाहिए। इसके लिए एक पैकेट (250 ग्राम) राइजोबियम कल्चर  प्रति 10 किग्रा. बीज की दर से उपचारित करना उचित रहता है। आधा लीटर पानी में 50 ग्राम गुड़ या शक्कर घोलकर उबाला जाता है। ठंडा होने पर इस घोल में एक पैकेट राइजोबियम कल्चर मिलाकर बीज में  अच्छी तरह मिलाकर छाया में सुखाकर शाम को या सुबह के समय बोनी की जाती है। इसके अलावा पी.एस.बी. (फॉस्फ़ोरस घोलक जीवाणु) कल्चर का प्रयोग खेत में अवश्य करना चाहिए ।

बोआई करें कतार में

                  आमतौर पर चने की बोआई छिटकवाँ विधि से की जाती है जो कि लाभप्रद नहीं है। फसल की बुआई हमेशा पँक्तियों मंे इष्टतम दूरी पर करें । बुआई देशी हल के पीछे कूड़ों में अथवा सीड ड्रिल द्वारा की जा सकती है। असिंचित अवस्था में चने में कतारों के बीच 30 - 40 से.मी. एवं पौधों के बीच 10 सेमी. फासला रखना चाहिए। सिंचित क्षेत्रों में बोआई कतारों में 45 सेमी. की दूरी पर करना चाहिए।  सामान्य रूप से असिंचित चने की बोआई 5 - 7 से.मी. की गहराई पर उपयुक्त मानी जाती है। खेत मे पर्याप्त नमी होने पर चने को 4 से 5 से.मी. की गहराई पर बोना चाहिए।

एक-दो सिंचाई से बढ़ें उपज

             अधिकांश इलाकों  में चने की खेती असिंचित-बारानी अवस्था में की जाती है। वैसे चने की जल आवश्यकता अपेक्षाकृत कम है। खेत में नमी होने पर बोआई के चार सप्ताह तक सिंचाई नहीं करनी चाहिए। चने में जल उपलब्धता के आधार पर दो सिंचाईयाँ, पहली फूल आने के पूर्व अर्थात बोने के 45 दिन बाद और दूसरी दाना भरने की अवस्था यानी बोने के 75 दिन बाद करना चाहिए । यदि एक सिंचाई हेतु पानी है तो फूल आने के पूर्व (बोने के 45 दिन बाद) सिंचाई करें। चने में फूल आते समय सिंचाई करना वर्जित है,अन्यथा फलियाँ कम लगती हंै । खेत में जल निकासी का उचित प्रबन्ध होना आवश्यक है।

फसल को दें सही खुराक-खाद एवं उर्वरक

                  दलहनी फसल होने के  कारण चने को नत्रजनीय उर्वरक की कम आवश्यकता पड़ती है। मिट्टी परीक्षण के आधार पर ही पोषक तत्वों की उचित मात्रा का निर्धारण करना चाहिए । सामान्य उर्वरा भूमियों  (सिंचित) में बोआई के समय नत्रजन 20 कि.ग्रा. स्फुर 60 कि.ग्रा.,पोटाश 20 कि.ग्रा. तथा गंधक 20 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से कूड़ में देना चाहिए । असिंचत अवस्था में  उक्त उर्वरकों की आधी मात्रा का प्रयोग बोआई के समय करना चाहिए। फाॅस्फोरस को सिंगल सुपर फाॅस्फेट के रूप में देने से स्फुर व गंधक की पूर्ति हो जाती है। असिंचित व उतेरा की फसल में 2% यूरिया या डायअमोनियम फॉस्फेट (डी.ए.पी.) उर्वरक के दो छिड़काव पहला फूल आने की अवस्था तथा इसके 10 दिन बाद पुनः छिड़काव करने से चने की पैदावार में वृद्धि होती है।

खरपतवार नियंत्रण

                   चना फसल की बोआई  के 30 - 60 दिनों तक खरपतवार फसल को अधिक हानि पहुँचाते हैं। ऐसा देखा गया है कि समय पर खरपतवार नियंत्रण न करने पर 40 - 50 प्रतिशत तक चना उत्पादन में  कमी हो सकती है । खेत में खरपतवार नष्ट करने के लिए एक निंदाई बोआई के 30 दिन बाद एवं दूसरी 60 दिन बाद करनी चाहिए। रासायनिक नियंत्रण के लिए पेन्डीमेथालीन 30 ईसी (स्टाम्प) 750 मिली-1000 मिली. सक्रिय तत्व (दवा की मात्रा  2.5-3 लीटर) प्रति हेक्टेयर अंकुरण के पूर्व 500 - 600 लीटर पानी में घोल बनाकर फ्लेट फेन नोजल युक्त पम्प से छिड़कना चाहिए। सँकरी पत्ती वाले  खरपतवार जैसे सांवा, दूबघास, मौथा आदि के नियंत्रण हेतु क्युजोलफ़ोप 40-50 ग्राम सक्रिय तत्व अर्थात 800-1000 मिली. दवा प्रति हेक्टेयर का छिड़काव बौनी के 15-20 दिन बाद करना चाहिए।

खुटाई कार्य

                    प्रायः फूल लगने के पहले पौधों के ऊपरी नर्म सिरे तोड़ दिये जाते है जिसे सिरे तोड़ना कहते है । चने में शीर्ष शाखायें तोड़ने से पौधों की वानस्पतिक वृद्धि रूकती है। जब पौधे 15 - 20 सेमी. की ऊँचाई के हो जाएँ तब खुटाई का कार्य करना चाहिए। ऐसा करने से शाखायें अधिक फूटती हैं। फलस्वरूप प्रति पौधा फूल व फलियों की संख्या बढ़ जाती है। चने की शाखाओं/पत्तियों को भाजी के रूप मे उपयोग किया जा सकता अथवा बाजार में बेचकर अतरिक्त लाभ कमाया जा सकता है।

कटाई-गहाई

                   चने की फसल किस्म के अनुसार 120 - 150 दिन में पकती है। इसकी कटाई फरवरी से अप्रैल तक ह¨ती है । पकने के पहल्¨ हरी दशा में पौधे  उखाड़कर हरे चने  (बूट) के रूप में ही  बाजार में बेच कर अच्छा लाभ कमाया जा सकता है । पत्तियों  के पीली पड़कर झड़ने तथा पौधों  के सूख जाने पर ही फसल पकी समझनी चाहिए । देश के कुछ भागो  में पौधों को उखाड़कर साफ़ स्थान पर एकत्रित कर लिया जाता है । फसल अधिक सूख जाने पर फल्लियाँ झड़ने  लगती हैं। इसलिए फसल की कटाई उचित समय पर करें एवं खलिहान में अच्छी तरह सुखाकर गहाई और  ओसाई कर ली जाती है ।

उपज एवं भंडारण 

                     चने की शुद्ध फसल से प्रति हेक्टेयर लगभग 20 - 25 क्विंटल  दाना उपज प्राप्त होती है । दानो  के भार का लगभग आधा या तीन-चौथाई भाग भूसा प्राप्त होता है। काबुली चने की पैदावार देशी चने की अपेक्षा थोड़ी कम होती है। चने के बीज को अच्छी तरह सुखाकर जब उसमें 10- 12 प्रतिशत नमी रह, जाय तब उचित स्थान पर भंडारित करें अथवा अच्छा भाव मिलने पर बाजार में बेच देना चाहिए।

नोट: कृपया लेखक की अनुमति के बिना इस लेख को अन्यंत्र प्रकाशित ना किया जाए। 

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

गेहूँ सघनीकरण पद्धति (श्री) से गेहूँ की बम्पर पैदावार


डाँ. गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (सस्य विज्ञान विभाग)
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, कृषक नगर,
रायपुर (छत्तीसगढ़)

                कम लागत में गेंहू का अधिकतम उत्पादन लेने की नवोन्वेषी तकनीक


                   देश कें कुल क्षेत्रफल 32 लाख 87 हजार वर्गकिलोमीटर में सें मात्र 14 करोड़ 20 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में ही खेती हो पा रही है। यह कृषि भूमि भी धीरे-धीरे कम हो रही है। हरित क्रांति के  फलस्वरूप गेंहूँ और धान के उत्पादन के  मामले में प्राप्त सफलता की चमक अब फीकी पड़ती जा रही है । अनेक राज्यो  में इन फसलों  की औसत  उपज में भारी गिरावट देखी जा रही है। सघन  फसलोत्प्तादन के कारण मिट्टी की गुणवत्ता और  भूमि की उर्वरता में कमी हो गई है। इसके कारण उपज में गिरावट ओंर उत्पादन लागत में भारी वृध्दि हो गई है जिससे खेती घाटे का सौदा बन गई है। वास्तव में हरित  क्रांति के दौरान हमने ज्यादा खाद, ज्यादा पानी और कीटनाशकों के प्रयोग का रास्ता चुना था वो हमारी खाद्यान्न सुरक्षा को बरकरार नहीं रख पाया है। आज खेती में लागत को  कम करने की महती आवश्यकता है। आज खेती किसानी की ऐसी तरकीब की जरूरत है जिसमें कम पानी, कम बीज और  रासायनिकों  के कम से कम प्रयोग से प्रति इकाई अधिकतम उपज प्राप्त की जा सके । विश्व में पानी की घटती उपलब्धता, अंधाधुन्ध रासायनिक उर्वरक व कीटनाशको के  उपयोग से  पर्यावरण प्रदूषण जैसी विकराल समस्या को  देखते हुए कैरिबियन देश मेडागास्कर में 1983 में फादर हेनरी डी लाउलेनी ने एक सस्ती तकनीक का आविष्कार किया जो  कि “धान सघनीकरण” विधि यानि श्री विधि (SRI) के नाम से प्रचलित व लोकप्रिय हो  रही है । दरअसल श्री (SRI) पद्धति चावल उत्पादन की एक नई तकनीक है जिसके तहत कम बीज और  पानी के सीमित प्रयोग से भी धान का बहुत अच्छा उत्पादन सम्भव होता है। इसे चावल सघनीकरण प्रणाली (श्री पद्धति) के नाम से भी जाना जाता है।
                      मेडागास्कर से निकलकर भारत तक आ पहुंची “चावल सघनीकरण” विधि अब भारत के  सभी धान उत्पादक राज्यो  में सफलता के  नित नये सौपान स्थापित कर रही है । इससे किसानों को परंपरागत विधि की तुलना में दो से तीन गुना अधिक धान का उत्पादन मिल रहा है। सीमित पानी, थोड़ा बीज, कम उर्वरक और शीघ्र फसल तैयार हो  जाने के कारण यह पद्धति किसानों ने खासी पसंद की है। जहां पारंपरिक तकनीक में धान के पौधों को पानी से लबालब भरे खेतों में उगाया जाता है, वहीं मेडागास्कर तकनीक में पौधों की जड़ों में नमी बरकरार रखना ही पर्याप्त होता है, लेकिन सिंचाई के पुख्ता इंतजाम जरूरी हैं, ताकि जरूरत पड़ने पर फसल की सिंचाई की जा सके। सामान्यतः जमीन पर हल्की दरारें उभरने पर ही दोबारा सिंचाई करनी होती है। इस तकनीक से धान की खेती में जहां बीज, श्रम, पूंजी और पानी कम लगता है, वहीं उत्पादन 300 प्रतिशत तक ज्यादा मिलता है। धान की तर्ज पर गेहूं की खेती भी किसान यदि ‘श्री’ पद्धति  गेंहू सघनीकरण पद्धति (SWI) से करें तो गेंहू के उत्पादन में ढाई से तीन गुना वृद्धि हो सकती है। प्रयोगो  से पता चला है कि गेहूँ की बुवाई वर्गाकार विधि के  तहत कतार व पौधों के बीच पर्याप्त दूरी स्थापित करने से पौधों  की  समुचित वृद्धी और विकास होता है जिससे उनमें स्वस्थ कंसे तथा पुष्ट बालियो का निर्माण होता है, फलस्वरूप  अधिक उपज प्राप्त होती है । इस विधि से खेती करने पर गेहूँ की कास्त  लागत  परंपरागत विधि की तुलना में आधी आती है  । गेंहू सघनीकरण पद्धति से खेती करने के  तौर  तरीकों  का विवरण अग्र प्रस्तुत है :

खेत की तैयारी

                      खेत की तैयारी सामान्य गेंहू की भांति ही करते है ।  खरपतवार व फसल अवशेष निकालकर खेत की 3-4 बार जुताई कर मिट्टी को  भुरभुरा (महीन) कर लें। तत्पश्चात पाटा चलाकर खेत को  समतल कर जलनिकासी का उचित प्रबंन्ध करें। यदि दीमक की समस्या है तो  दीमक नाशक दवा का प्रयोग करना चाहिए । खेत में पर्याप्त नमीं न होने पर बुवाई के  पहले एक बार पलेवा करना चाहिए । खेत को  छोटी-छोटी क्या रियों  में विभक्त करने से सिंचाई व अन्य सस्य क्रियाएं करने में सुगमता रहती है ।

बुवाई का समय

                 गेंहू की फसल से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने में बुवाई का समय महत्वपूर्ण कारक है । समय से बहुत पहले या बहुत बाद में गेंहू की बुवाई करने से उपज पर बिपरीत प्रभाव पड़ता है । सामान्यतौर  पर नवम्बर-दिसम्बर के  मध्य में बुवाई संपन्न कर लेना चाहिए ।

उन्नत  किस्मो का चयन

               गेंहू की अधिक उपज देने वाली किस्म¨ं का चयन स्थानिय कृषि जलवायु एवं भूमि की दशा (सिंचित या असिंचित) के  अनुसार करना चाहिए । क्षेत्र विशेष के  लिए संस्तुत किस्मो के प्रमाणित बीज का ही प्रयोग करें ।

बीज दर एवं बीज शोधन

               उन्नत बौनी  किस्मो  के  प्रमाणित बीज का चयन करें । बुआई हेतु प्रति एकड़ 10 किग्रा. बीज का उपयो ग करना चाहिए । सबसे पहले 20 लीटर पानी एक वर्तन ( मिट्टी का पात्र-घड़ा, नांद आदि बेहतर) में गर्म (60 डिग्री सें. अर्थात गुनगुना होने तक) करें  । अब चयनित बीजों को इस गर्म पानी में डाल दें । तैरने वाले हल्के  बीजों  को  निकाल दें । अब इस पानी में 3 किलो  केचुआ खाद, 2 किलो  गुड़ एवं 4 लीटर देशी गौमूत्र  मिलाकर  बीज के  साथ अच्छी प्रकार से मिलाएं । अब इस मिश्रण को  6-8 घंटे के  लिए छोड़ दें । तत्पश्चात इस मिश्रण को  जूट के  बोरे में भरें जिससे मिश्रण का पानी निथर जाए । इस पानी को  एकत्रित कर खेत में छिड़कना लाभप्रद रहता है। अब बीज एवं ठ¨स पदार्थ क¨ बाविस्टीन 2-3 ग्राम प्रति किग्रा. या ट्राइकोडर्मा 7.5 ग्राम प्रति किग्रा. के  साथ पीएसबी कल्चर 6 ग्राम और  एजेटोबैक्टर कल्चर 6 ग्राम प्रति किग्रा बीज के  हिसाब से उपचारित कर नम जूट बैग के  ऊपर छाया में फैला देना चाहिए । लगभग 10-12 घंटों  में बीज बुवाई के लिए तैयार हो  जाते है । इस समय तक बीज अंकुरित अवस्था में आ जाते है। इसी अंकुरित बीज को  बोने के  लिए इस्तेमाल करना है ।   इस प्रकार से बीजोपचार करने से बीज अंकुरण क्षमता  और  पौधों के   बढ़ने की शक्ति बढ़ती है और पौधे  तेजी से विकसित होते है, इसे प्राइमिंग भी कहते है । बीज उपचार के  कारण जड़  में लगने वाले रोग की रोकथाम हो  जाती है । नवजात पौधे के  लिए गौमूत्र  प्राकृतिक खाद का काम करता है ।

बुवाई की विधि

              जैसा की पहले  बताया गया है की बुवाई के  समय मृदा मेें पर्याप्त नमी होना आवश्यक है, क्योकि बुवाई हेतु अंकुरित बीज का प्रयोग किया जाना है ।  सूखे खेत में पलेवा देकर ही बुवाई करना चाहिए । बीजों  को  कतार में  20 सेमी की दूरी में लगाया जाता है । इसके  लिए देशी हल या पतली कुदाली की सहायता से 20 सेमी. की दूरी पर 3 से 4 सेमी. गहरी नाली बनाते है और  इसमें 20 सेमी. की दूरी पर  एक स्थान पर 2 बीज डालते है । बुवाई पश्चात बीज को  हल्की मिट्टी से ढंक देते है । बुवाई के 2-3 दिन में पौधे निकल आते है । खाली स्थानॉ पर नया शोधित बीज लगाना अनिवार्य है जिससे प्रति इकाई वांक्षित पादप  संख्या स्थापित हो  सके  । कतार तथा बीज के  मध्य वर्गाकार (20  x 20 सेमी.) की दूरी रखने से प्रत्येक पौधे के  लिए पर्याप्त जगह मिलती है जिससे उनमें आपस में पोषण, नमी व प्रकाश के  लिए प्रतियोगिता नहीं होती है ।

खाद एवं उर्वरक

                     यह सर्वविदित है की बगैर जैविक खाद के  लगातार रासायनिक उर्वरको  का प्रयोग करते रहने से खेत की उपजाऊ क्षमता घटती है । अतः  उर्वरको के साथ जैविक खादों  का समन्वित प्रयोग करना टिकाऊ फसलोत्पादन के लिए आवश्यक रहता है । उपब्धतानुसार प्रति एकड़ कम्पोस्ट या गोबर खाद  (20 क्विंटल) या केचुआ खाद (4 क्विंटल) में ट्राइकोडर्मा मिलाकर एक दिन के  लिए ढंककर रखने के  पश्चात खेत में मिलाना फायदेमंद रहता है । अंतिम जुताई के  पूर्व 30-40 किग्रा. डाय अमोनियम फास्फेट (डीएपी) और  15-20 किग्रा.  म्यूरेट आफ पोटाश प्रति एकड़ की दर से खेत में छींटकर अच्छी तरह हल से मिट्टी में मिला देंना चाहिए । प्रथम सिंचाई के  बाद 25-30 किग्रा.  यूरिया एवं 4 क्विंटल  वर्मीकम्पोस्ट को  मिलाकर कतारो  मे देना चाहिए । तीसरी सिंचाई के  पश्चात एवं गुड़ाई से पहले 15 किग्रा. यूरिया एवं 10 किग्रा.  पोटाश उर्वरक प्रति एकड़ की दर से कतारो  में देना चाहिए ।
सिंचाई प्रबंधन: पानी का कुशल प्रयोग
                  बुवाई के  समय खेत में अंकुरण के  लिए पर्याप्त नमी होना नितांत आवश्यक है क्योंकि इस विधि में अंकुरित बीज लगाया जाता है । बुवाई के  15-20 दिनो  बाद गेंहू में प्रथम सिंचाई देना करना जरूरी है क्यो कि इसके  बाद से पौधों  में नई जडें आनी शुरू हो  जाता है । भूमि में नमी की कमी से पौधों  में नई जडें विकसित नहीं हो पाती है, जिसके  फलस्वरूप पादप  बढ़वार रूक सकती है । बुवाई के  30-35 दिनो  बाद दूसरी सिंचाई देना चाहिए, क्योकि इसके  बाद पौधों में नए कल्ले तेजी से आना शुरू होते है और  नये कल्ले बनाने के  लिए पौधों को पर्याप्त  नमीं एवं पोषण की आवश्यकता रहती है । बुवाई के  40 से 45 दिनॉ के  बाद तीसरी सिंचाई देना चाहिए, इसके  बाद से पौधे  तेजी से बड़े होते है साथ ही नए कल्ले भी आते रहते है । गेंहू की फसल में अगली सिंचाईयां भूमि एवं जलवायु अनुसार की जानी चाहिए । गेंहू में फूल आने के  समय एवं दानों  में दूध भरने के  समय खेत में नमीं की कमी नहीं रहनी चाहिए अन्यथा उपज में काफी कमी हो सकती है ।

निंदाई-गुड़ाई: एक आवश्यक निवेष

           सिंचित क्षेत्रों  में गेंहू के  खेत में लगातार नमी रहने के  कारण खरपतवारों  का अधिक प्रकोप होता है जिससे उपज में काफी हांनि होती है । इसके  अलावा सिंचाई करने के  पश्चात मृदा की एक कठोर परत निर्मित हो  जाती है जिससे भूमि में हवा का आवागमन तो अवरुद्ध होता ही है, पोषक तत्व व जल अवशोषण भी कम होता है । अतः खेत में सिचाई उपरांत निंदाई-गुड़ाई करना आवश्यक होता है । तदनुसार प्रथम सिंचाई के  2-3 दिन बाद पतली कुदाली या रोटोवीडर से मिट्टी को  ढीला करें  एवं खरपतवार भी निकालें । अंतर्कर्षण से जडो को आवश्यक हवा, पानी और  पोषक तत्व सुगमता से प्राप्त होते रहते है जिससे पौधों  का समुचित विकास होता है।  दरअशल अंकुरण के  बाद गेंहू के पौधों  में सेमिनल जड़े निकलती है जो पानी व भोजन की तलाश में मिट्टी में नीचे की ऒर  तेजी से बढ़ती है, यदि मिट्टी सख्त है तो वे ज्यादा नीचे तक नहीं जा पाती है और  उनकी बढ़वार अवरूद्ध हो  जाती है । बुवाई के  20 दिन बाद मिट्टी की सतह के  ठीक नीचे क्राउन जडें निकलती है जो  पानी एवं भोजन की तलाश में चारों  तरफ फैलती है । यदि मिट्टी सख्त है तो  वे ज्यादा फैल नहीं सकती है जिससे नन्हे पौधों को पर्याप्त भोजन व पानी नहीं मिलता है । गेंहू में दूसरी एवं तीसरी गुड़ाई क्रमशः 30-35 व 40-45 दिन पर सिंचाई के  2-3 दिन पश्चात करना चाहिए ।

गेंहूँ सघनीकरण पर प्रयोग

                   भारत के  अनेक राज्यों  विशेषकर बिहार, मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश में विभिन्न संस्थाऑ  (आत्मा परियोजना) एवं स्वंय सेवी संगठनों  (प्रदान आदि) के  माध्यम से किसानो के खेतो पर किये गये प्रयोगों  से ज्ञात होता है कि गेंहू सघनीकरण पद्धति (श्री विधि) से खेती करने पर परंपरागत विधि से प्राप्त 10-20 क्विंटल प्रति एकड़ की तुलना में 25 से 50 प्रतिशत अधिक उपज और  आमदनी ली जा सकती है । परंपरागत विधि से गेहूँ की खेती करने पर सामान्यत: पर किसानो को 40-60 किग्रा. प्रति एकड़ बीज लगता है, जबकि इस विधि में 10-15 किग्रा. प्रति एकड़ ही बीज लगता है । इस विधि में खाद-पानी की भी वचत होती है । इस प्रकार से हम कह सकते है कि भारत में पर्यावरण को नुकसान पहुचाए बिना टिकाऊ खाद्यान्न उत्पादन लेने यह एक आदर्श तकनीक है।  खाद्य सुरक्षा कानून को  सही मायने में लागू करने के  लिए प्रमुख खाद्यान्न फसलें चावल व गेहूँ की खेती फसल सघनीकरण पद्धति से करने किसानो को प्रोत्साहित करने से इनके  उत्पादन में लक्षित बढ़ो त्तरी की आशा की जा सकती है ।

ताकि सनद रहे: कुछ सरारती तत्व मेरे ब्लॉग से लेख को डाउनलोड कर बिभिन्न पत्र पत्रिकाओ और इन्टरनेट वेबसाइट पर अपने नाम से प्रकाशित करवा रहे है।  यह निंदिनिय, अशोभनीय व विधि विरुद्ध कृत्य है। ऐसा करना ही है तो मेरा (लेखक) और ब्लॉग का नाम साभार देने में शर्म नहीं करें।तत्संबधी सुचना से मुझे मेरे मेल आईडी पर अवगत करना ना भूले। मेरा मकसद कृषि विज्ञानं की उपलब्धियो को खेत-किसान और कृषि उत्थान में संलग्न तमाम कृषि अमले और छात्र-छात्राओं तक पहुँचाना है जिससे भारतीय कृषि को विश्व में प्रतिष्ठित किया जा सके।

गुरुवार, 17 अक्तूबर 2013

मीठी ज्वार: जैव-ईधन का महत्वपूर्ण स्त्रोत

                                                   SWEET SORGHUM (मीठा ज्वार) से जैव ईधन

                                                                         डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर 
                                                                      प्राध्यापक (सश्यविज्ञान)
                                                                 इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, 
                                                                  कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)

                विश्व स्तर पर  ईधन पैट्रोलियम  की बेतहाशा बढ़ती कीमतो  के  कारण विगत कुछ वर्षो  से पैट्रोलियम  ईधन में जैव-ईधन के  मिश्रण पर बहुत जोर  दिया जा रहा है जिससे न केवल ईधन के  आयात में उल्लेखनीय कमीं संभावित है  वरन पर्यावरण प्रदूषण भी कम करने में मदद मिलेगी । भारत सरकार ने पर्यावरण प्रदूषण तथा ईधन आयात को  कम करने के  उद्देश्य से पैट्रोलियम  ईधन में 20 प्रतिशत जैव-ईधन (बायोडीजल) मिश्रित करने की स्वीकृति प्रदान कर दी है । तदनुसार देश में प्रतिवर्ष लगभग 1 बिलियन लीटर इथेनाल की आवश्यकता है । इसी तारतम्य मे सरकार ने  जैव-ईधन नीति की घोषणा भी की है जिसके  अनुसार बीते वर्ष देश को  कुल 3.6 मिलियन टन के  लगभग जैव-ईधन की जरूरत आंकी गई थी । परन्तु जैव-ईधन उत्पादन में अभी हमारी मंजिल बहुत दूर है । वर्तमान में शक्कर कारखानो  में ही सीमित मात्रा में इथेनाल या अल्कोहल का उत्पादन किया जा रहा है । चीनी मिलों  से प्राप्त शीरा (मोलासिस) से उत्पादित इथेनाल की प्रकिृया में एक तो  पर्यावरण प्रदूषित होता है दूसरा घटते जल स्तर और  कम होती कृषि योग्य भूमि को  ध्यान में रखते हुए गन्ना फसल के  अन्तर्गत वर्तमान क्षेत्रफल में बहुत ज्यादा इजाफा होना संभव प्रतीत नहीं होता है । इन परिस्थितियो  में हमें जैव-ईधन उत्पादन के  लिए वैकल्पिक फसलें खोजने की आवश्यकता है जो  सीमित संसाधानो  (भूमि और  जल) में पर्यावरण प्रदूषित किये बिना पर्याप्त जैव-ईधन पैदा करने में सक्षम हों  । ऐसी ही एक बहुपयोगी फसल मीठी ज्वार है । इसके तनो  में 10-20 प्रतिशत तक चीनी संग्रहण करने की क्षमता होती है जो  कि भारत में वैकल्पिक जैव-ईधन का एक महत्वपूर्ण साधन बन सकती है ।
                   गन्ने की फसल 10-12 माह में तैयार होती है जिसकी जल मांग अत्यधिक होती है तथा अच्छी उपज के  लिए कृषि आदानो  में अधिक निवेष करना पड़ता है । जबकि मीठी ज्वार कम अवधि (100-120 दिन) में सीमित पानी और  कम खर्च में तैयार हो  जाती है । छत्तीसगढ़ की मिट्टी और  जलवायु में मीठी ज्वार की 2-3 फसलें सफलतापूर्वक ली जा सकती है । एक अनुमान के  अनुसार मीठी ज्वार से उत्पादित इथेनाल का प्रति लीटर खर्च 13.20 रूपये आता है, जबकि गन्ने के  शीरे द्वारा उत्पादित इथेनाल का खर्च 15 रूपये प्रति लीटर आता है । यही नहीं गन्ने के  शीरे द्वारा तैयार इथेनाल की अपेक्षा मीठी ज्वार से उत्पादित इथेनाल की गुणवत्ता बेहतर पायी गई है ।  इसके  अलावा मीठी ज्वार से 10-15 क्विंटल  प्रति हैक्टर दाना उपज भी प्राप्त की जा सकती है तथा तने से रस निकालने के  उपरांत बची हुई खोई (अवशेष) को  पौष्टिक पशु आहार अथवा बिजली संयत्रों  में (कोयलाा के  साथ जलाने) ऊर्जा निर्माण हेतु प्रयुक्त किया जा सकता है । इस प्रकार मीठी ज्वार की फसल को  बढ़ावा देने से आम के  आम और  गुठली के  दाम जैसी पहेली को  चरितार्थ किया जा सकता है । भारत के अनेक राज्यों विशेष कर छत्तीसगढ़ राज्य  में रतनजोत से जैव ईधन उत्पादन की महत्वाकांक्षी परियोजना संचालित की गई है जिस पर भारी भरकम राशि खर्च की जा रही है परन्तु अभी तक कोई ठोस परिणाम नजर नहीं आ सका  है । छत्तीसगढ में मीठी ज्वार  की खेती को विस्तारित करने से यहां के  छोटे व मझोले किसानो  को  वर्ष पर्यन्त रोजगार और  आमदनी के  साधन उपलब्ध  होने के  अलावा  जैव-ईधन उत्पादित किया जा सकता है जिससे प्रदेश की आर्थिक स्थिति मजबूत हो  सकती है और  पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाया जा सकता है । ज्ञात हो की  मीठी ज्वार की खेती सिंचित और असिचित परिस्थितियो में खाद एवं उर्वरको का सिमित मात्रा में प्रयोग कर सफलता पूर्वक की जा सकती है ।
            ज्वार विश्व की एक मोटे अनाज वाली महत्वपूर्ण फसल है । पारंपरिक रूप से खाद्य तथा चारा की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु इसकी खेती की जाती है, लेकिन अब यह संभावित जैव-ऊर्जा फसल के रूप में भी उभर रही है । सभी धान्य फसलों में ज्वार की फसल शुष्क पदार्थ उत्पादन में सब से अधिक दक्ष फसल के रूप में जानी जाती है। तने में शर्करा जमा करने की क्षमता के साथ 70-80 प्रतिषत जैव पदार्थ उत्पादन तथा समुचित मात्रा में दाना उत्पादन क्षमता के कारण मीठी ज्वार एक विषिश्ट स्थान रखती है। सी-4 पौधा होने के कारण मीठी ज्वार औसतन 50 ग्राम प्रति वर्ग मीटर प्रतिदिन शुष्क  पदार्थ उत्पादन कर सकती है।  जैव ईंधन  के रूप में प्रयोग की जा सकने वाले एक मुख्य स्रोत के रूप में मीठी ज्वार का उपयोग किया जा सकता है।गन्ने की भांति ही मीठी ज्वार के रस के किण्वीकरण  एवं आसवन  द्वारा अल्कोहल उत्पादित किया जा सकता है ।औसतन मीठी ज्वार की एक अच्छी किस्म से 800 से 1200 ली. प्रति हे. अल्कोहल प्राप्त किया जा सकता है। इसे पेट्रोल के साथ मिश्रित कर इंन्धन के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।  इसके अलावा मीठी ज्वार का प्रयोग गुड़ एवं सीरप उत्पादन में भी किया जा सकता है। मीठी ज्वार में अधिक प्रकाश संष्लेशण क्षमता के कारण इससे 35 से 40 टन हरा तना तथा 1.5-2.5 टन दाना प्राप्त किया जा सकता है। मीठी ज्वार में लगभग 15-17 प्रतिशत किण्वीकरण योग्य शर्करा पायी जाती है। गन्ना चीनी मिलों  में छः माह ही मशीनरी का भली प्रकार प्रयोग हो पाता है ।  जब गन्ने की उपलब्धता नहीं होती है, उस समय मीठी ज्वार के प्रयोग से गन्ना मिले  चलाई जा सकती हैं । इस प्रकार वर्ष भर रोजगार के नये अवसर उपलब्ध हो सकते है।  विविध उपयोग को देखते हुए ज्वार को  आजकल औद्यौगिक फसल के रूप में देखा जा रहा है ।सफेद ज्वार के आटे से ब्रेड, बिस्किट एवं केक बनाये जा सकते हैं। ज्वार के आटे के स्वाभाविक रूप से मीठा होने के कारण चीनी की मात्रा कम रखकर मधुमेह रोगियों के लिए अच्छा स्नैक तैयार किया जा सकता है। ज्वार के अनाज से भी स्वादिष्ट  एवं सुगंधित बियर बनाई जा सकती है, जो अन्य धान्य से बनाई बियर से सस्ती पड़ती है। ज्वार की विशेष किस्म से स्टार्च तैयार किया जाता है । अल्कोहल उत्पादन हेतु  भी ज्वार एक उत्कृष्ट साधन है । इस प्रकार से ओद्योगिक क्षेत्रों  में ज्वार की मांग बढ़ने से ज्वार उत्पादक किसानो को  ज्वार की बेहतर कीमत प्राप्त हो  सकती है। इसलिए ज्वार से जैव-ईधन तैयार करने हेतु उद्यम स्थापित  करने प्रदेश सरकार को आवश्यक पहल करना चाहिए। इससे न केवल जैव-इधन उत्पादन क्षेत्र में हम सक्षम होंगे वल्कि वर्षा निर्भर क्षेत्रो के किसानो की आर्थिक स्थिति में उल्लेखनीय प्रगति हो सकती है।  ज्ञात हो कि शक्कर मिल में प्रयुक्त मशीनो से ही मीठी ज्वार से एथेनाल भी निर्मित किया जा सकता है ।

मीठी ज्वार से अधिकतम उत्पादन कैसे लें

     सामान्य ज्वार की भांति मीठी ज्वार की खेती की जाती है । प्रति इकाई अधिकतम उत्पादन के  लिए किसानो  को  अग्र प्रस्तुत उन्नत सस्य विधियो  का अनुशरण करना चाहिए ।

जलवायु कैसी हो

                     ज्वार उष्ण जलवायु  की फसल है। इसकी खेती के लिए मैदानी  क्षेत्र अधिक   उपयुक्त होते है परन्तु इसे समुद्र तल से लगभग 900 मी. की ऊँचाई तक उगाया जा सकता है। बीज अंकुरण के लिए न्यूनतम तापक्रम 7-10 डि. से. होना चाहिए। पौधों की बढ़वार के लिए 26-30 डि.से. तापक्रम अनुकूल माना गया है। इसकी खेती के लिए 50-60 सेमी. वार्षिक वर्षा उपयुक्त होती है। ज्वार को मक्का से कम पानी की आवश्यकता होती है । ज्वार की फसल में सूखा सहन   करने की अधिक क्षमता होती है। ज्वार के पौधो  की यह एक बड़ी विशेषता होती है कि जीवन-काल में सूखा  पड़ जाने पर इसकी वृद्धि रूक जाती है परन्तु उपयुक्त मौसम मिलते ही यह फिर तेजी से बढ़ना आरम्भ कर देती है । इसी बजह से इसे ऊँट फसल  भी कहते है । अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में परागण  के समय वर्षा अधिक होने से परागकण बह जाने की सम्भावना रहती है जिससे इन क्षेत्रों में ज्वार की पैदावार कम आती है। यह एक अल्प प्रकाशपेक्षी पौधा  है। ज्वार की अधिकांश किस्मों में फूल तभी आते हैं जबकि दिन अपेक्षाकृत छोटे होते है। नवीन विकसित संकर  किस्मो  पर दिन के छोटे या बड़े होने का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता ।

भूमि का चयन एवं खेत की तैयारी

               ज्वार की फसल सभी प्रकार की मृदाओं यथा भारी और  हल्की मिट्टियां, जलोढ, लाल या पीली दुमट और  यहां तक कि रेतीली मिट्टियो  में भी उगाई जाती है, परन्तु इसके  लिए उत्तम जल निकासयुक्त चिकनी दोमट भूमि   सर्वोत्तम होती है। असिंचित अवस्था में अधिक जल धारण क्षमता  वाली मृदाओं में ज्वार की पैदावार अधिक होती है।  ज्वार की फसल 6.0 से 8.0  पी. एच. वाली मृदाओं में सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है।
              पिछली फसल की कटाई  करने के  बाद मिट्टी पलटने वाले हल  से खेत की 15-20 सेमी. गहरी जुताई करनी चाहिए। इसके बाद 2-3 बार हैरो या 4-5 बार देशी हल चलाकर मिट्टी को भुरभुरा  कर लेना चाहिए। बोआई से पूर्व पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए।

माठी ज्वार की किस्में

                ज्वार के  तने मीठे व रशीले होते है जिससे 40 टन प्रति हैक्टर तक तने प्राप्त होते है ।  उन्नत किस्मो में सबसे पहले एस. एस.वी.-84 किस्म राष्ट्रीय स्तर पर जारी की गई है ।एसएसव्ही-53,एसएसव्ही-96 व एसएसव्ही-84 उन्नत किस्में है। इसके  अलावा बी.जे.-248, आर.एस.एस.वी.-9, एन.एस.एस.वी.-208, एन.एस.एस.वी.-255 तथा आर.एस.एस.वी.-56 किस्में भी मीठी ज्वार की खेती के  लिए जारी की गई है । यह सभी  किस्में 100-110 दिन में तैयार हो  जाती है ।

                सारणीः मीठे ज्वार की प्रमुख उन्नत किस्मो  की उपज एवं गुणों  का तुलनात्मक अध्ययन
प्रमुख किस्में            तना उपज (ट/ है.) शर्करा (ट/ है) रस(कि.ली./ है.)   रस प्रति. इथेनाल (ली./ है) दाना(ट/ है.)
एस.एस.वी.-74               40-42                   2.77              15-18                    40-45        1100    1.5-2.0
एस.एस.वी.-64               35-40                  1.66               12-18                     40-45        1000    1.0-1.5
सी.एस.वी19 एस.एस.     35-40                  1.59                10-16                   32-36          1000    0.8-1.0
सी.एस.वी. 19 एस.एस. 40-45                    2.14                 13-18                   35-40        1134     1.0-1.5
स्त्रोतः ज्वार अनुसधान अनुसंधान निदेशालय, हैदराबाद

बुवाई का समय

                   सामान्यत: मीठे तने वाले ज्वार की बुवाई खरीफ ऋतु में ही की जाती है परन्तु सिंचाई की सुविधा होने पर इसे रबी और  जायद(ग्रीष्मकाल) में भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है । खरीफ मौसम में मानसून आगमन के  तुरन्त पश्चात (जून के  प्रथम पखवाड़े से जुलाई के  प्रथम सप्ताह तक) बुवाई सपन्न कर लेना चाहिए । बुवाई का इस तरह समायोजित करें जिससे फूल आते समय वर्षा न हो  । रबी फसल की बुवाई सितंबर के  अंतिम सप्ताह से लेकर अक्टूबर के  अंतिम पखवाडे़ तक करना लाभप्रद रहता है । बुवाई के  समय रात्रिकालीन तापक्रम 15 डिग्री. से.ग्रे. से ऊपर होना चाहिए । कम तापक्रम पर बीजांकुरण प्रभावित होता है । ग्रीष्मकालीन फसल की बुवाई 15 जनवरी से 15 फरवरी तक की जा सकती है ।

बीज दर एवं बुवाई

             अधिकतम उपज के  लिए खेत में प्रति इकाई ईष्टतम संख्या स्थापित होना आवश्यक है । मीठी ज्वार की बुवाई हमेशा कतार विधि से ही करना चाहिए । प्रति हैक्टर 8-10 किग्रा. बीज पर्याप्त रहता है । बुवाई हल के  पीछे पोरा विधि या सीड ड्रिल से की जा सकती है । बुवाई कतारो  में 45-60 सेमी. की दूरी पर करें तथा पौधो  से पौधो  के  मध्य 15 सेमी. की दूरी स्थापित करें । अधिकतम पैदावार के  लिए 1.10 से 1.20 लाख पौधे  प्रति हैक्टर आवश्यक होते है । अधिक पौधे (सघन) होने से तनो  का विकास अवरूद्ध होता है तथा पौधे हवा से गिर सकते है । बीज 3-4 सेमी. गहराई पर बोना चाहिए। यह देखा गया है कि ज्यादा गहराई पर बोये गये बीज के बाद तथा अंकुरण से पूर्व वर्षा होने से भूमि की ऊपरी परत सूखने पर कड़ी हो जाती है जिससे बीज जमाव  अच्छा नहीं होता है। भूमि में पर्याप्त नमी होने की स्थिति में उथली बोआई सर्वोत्तम पाई गई है।
             बोआई से पूर्व बीज को कवकनाशी रसायनो  से उपचारित करके ही बोना चाहिये जिससे बीज जनित रोगों से बचाव किया जा सके। संकर ज्वार का बीज पहले से ही उपचारित होता है, अतएव उसे फिर से उपचारित करने की आवश्यकता नहीं पडती। अन्य किस्मो  के  बीज को  बोने से पूर्व फंफूदनाशक दवा थायरम 3 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करें। फफूँद नाशक दवा से उपचार के उपरांत एवं बोनी के पूर्व एजोस्प्रिलिम एवं पी.एस.बी. कल्चर का उपयोग 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से अच्छी तरह मिलाकर किया जाना चाहिए। कल्चर के उपयोग से ज्वार की उपज में वृद्धि होती है। उपचारित बीज को धूप से बचाकर रखें तथा बुवाई शीघ्रता से कर देनी चाहिए। दीमक के प्रकोप से बचने के लिए क्लोरपायरीफाॅस 25 मिली. दवा से प्रति किग्रा. बीज शोधित कर बोआई करना चाहिए।
  

पौध  विरलीकरण एवं खाली स्थानो  की पूर्ति

          खेत में ईष्टतम पौध संख्या तथा उचित बढवार व विकास के  लिए पौधो  का विरलीकरण अति आवश्यक होता है । बुवाई से 20-22 दिन बाद पहली निंदाई-गुड़ाई के  समय पौध  विरलीकरण कार्य किया जाता है । इसके  लिए कतारो  में 15 सेमी. की दूरी पर प्रति स्थान एक पौधे को  छोड़कर शेष को  उखाड़ देना चाहिए । कतारो  में रिक्त स्थानो  (जहाँ पौध का जमाव नहीं) पर उखाड़े गये पौधो  की रोपाई करना आवश्यक है । विरलीकरण के  20-25 दिन बाद यदि पौधों के  बगल से कल्ले निकलते है तो  उन्हे भूमि की सतह से काट कर अलग कर देने से मुख्य तने का संपूर्ण विकास होता है ।

खाद एवं उर्वरक

                  ज्वार की फसल भूमि से भारी मात्रा  में पो षक तत्वो  का अवशोषण करती है । ज्वार की अच्छी उपज के लिए फसल  में खाद एंव उर्वरक का प्रयोग उचित मात्रा में करना आवश्यक रहता है। दीर्घावधि तक उत्पादन में निरंतरता  बनाये रखने के लिये बिजाई से 15 दिन पूर्व कंपोस्ट या गोबर की खाद  8-10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना लाभदायक ह¨ता है।पोषक तत्वों की सही मात्रा के निर्धारण के लिए मिट्टी की जांच कराना आवश्यक है। इसके अलावा 100-120 किग्रा. नत्रजन, 40-50 किग्रा. फास्फ़ोरस तथा 40 किग्रा. पोटाश प्रति हैक्टर की दर से देना चाहिए । नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फ़ोरस व पोटाश की संपूर्ण मात्रा बुवाई के  समय खेत में कूंड़ो  में मिला देनी चाहिए । नत्रजन के  शेष भाग को  दो  समान भागो  में बांटकर दो  बार में बुवाई के  30 दिन बाद (अंतिम विरलीकरण के  बाद) तथा 45-50 दिन बाद कतारो में देना चाहिए ।

अन्तःकर्षण व खरपतवार नियंत्रण

                  मीठी ज्वार में बुवाई के  20-35 दिन पश्चात कतारो  के  मध्य ब्लेड हैरो  या कल्टीवेटर से जुताई करने से खरपतवारो  की ऱो कथाम होती है साथ ही जड़ो  का विकास भी अच्छा होता है और  कतारो  में मिट्टी भी चढ़ जाती है जिससे पौधे गिरने की संभावना कम हो जाती है । रासायनिक खरपतवार नियंत्रण हेतु एट्राजीन या प्रोपाजीन 0.5 से 1 किग्रा. सक्रिय  अवयव प्रति हेक्टेयर अथवा एलाक्लोर 1.5 किग्रा. को  800-1000 लीटर पानी में घोलकर  ब¨नी के पश्चात एवं अंकुरण के पूर्व छिड़काना चाहिएं। छिड़काव करते समय मिट्टी में पर्याप्त नमी होना आवश्यक है। खेत में चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों का अधिक प्रकोप होने पर, 2,4-डी (सोडियम लवण) 1.0-0.5 किग्रा. प्रति हे. मात्रा को 600-800 ली. पानी में घोलकर बोने के 25-30 दिन बाद छिड़काव चाहिए।

सिंचाई प्रबंधन

                 आमतौर  पर ज्वार की खेती खरीफ ऋतु में वर्षा आश्रित  क्षेत्रों  में की जाती है । वर्षा का वितरण समान होने पर सिंचाई की आवश्यकता नहीं ह¨ती है । असमान वर्षा की स्थिति में फसल की क्रांतिक अवस्थाओ  यथा बाली निकलते समय (बुवाई क¢ 35-40 दिन बाद) तथा दाना बनते समय (बुवाई के  55-60 दिन बाद) खेत में नमीं की कमीं ह¨ने पर उपज में गिरावट ह¨ती है । अतः इन अवस्थाओ  पर सिंचाई करना आवश्यक रहता है । मानसून देरी से आने पर पलेवा देकर बुवाई करना चाहिए । रबी या जायद में भूमि में पर्याप्त नमी न होने की दशा में बुवाई के  तुरंत पश्चात हल्की सिंचाई करने से अंकुरण अच्छा होता है । इसके  बाद बुवाई के  15, 30, 55 एवं 80-90 दिन बाद सिंचाई करने से उपज में बढोत्तरी होती है । प्रारंभिक बढ़वार के  समय फसल में फब्वारा विधि से सिंचाई कर जल की वचत की जा सकती है ।

कीट सुरक्षा

              ज्वार की फसल को  कीड़ो  से बहुत क्षति होती है । अतः कीट नियंत्रण करना आवश्यक होता है । ज्वार के  प्रमुख कीट एवं उनके नियंत्रण के उपाय प्रस्तुत हैः
प्ररोह मक्खीः इस कीट का प्रकोप  अंकुरण के  1-4 सप्ताह के  अन्दर होता है । समय पर बुवाई करने से प्रकोप कम होता है । इसके  नियंत्रण हेतु बुवाई के  समय कार्बोफ्यूरान (3जी) 10 किग्रा. प्रति हैक्टर या फ़ोरेट (10जी) 15 किग्रा. प्रति हैक्टर की दर से कूड़ो  में डालना चाहिए ।
तना छेदक: इस कीट का प्रकोप बुवाई के  15 दिन से लेकर फसल की परिपक्वता तक हो  सकता है । इसके  नियंत्रण के  लिए बुवाई  के  20-25 दिन बाद पत्तियो  के  चक्रों  में कार्बोफ्यूरान (3जी) 8-12 किग्रा. प्रति हैक्टर की दर से डालना चाहिए ।
एफिडः इस कीट का प्रकोप वर्षा के  अंत में अधिक होता है । इसकी रोकथाम के  लिए मेटासिस्टाक्स 35 ईसी 1 मिली. प्रति लीटर पानी की दर से फसल पर छिड़काव करना चाहिए ।

कटाई एवं उपज

                        मीठी ज्वार की फसल की कायिक परिपक्वता पर भुट्टो  की तुडा़ई कर लेना उचित रहता है । इस अवस्था में ज्वार के  दानो  पर काले रंग के  धब्बे दिखने लगते है । खड़ी फसल में ब्रिक्स की मात्रा ज्ञात करके  भी कटाई के  उचित समय का पता लगाया जा सकता है । कटाई के  समय ब्रिक्स का माप 17-18 प्रतिशत होना चाहिए । ज्वार के  हरे पौधो को  जमीन की सतह से हंसिये की सहायता से काट कर पत्तियो  को  तने से अलग कर लेना चाहिए । काटे गए  तनों  को 10-15 किग्रा. के  बंडल में बांध  लेना चाहिए तथा कटाई के  24 घंटे के  अंदर रस निकलने हेतु समीप की मिल में भेज देना चाहिए । तने की उपज एवं गुणवत्ता उपयोग में लाई गई किस्मो  एवं सस्य तकनीक पर निर्भर करती है । भुट्टो को  अच्छी प्रकार सुखा कर गहाई कर दानो को  साफ कर भंडारित करें ।

ताकि सनद रहे: कुछ सरारती तत्व मेरे ब्लॉग से लेख को डाउनलोड कर बिभिन्न पत्र पत्रिकाओ और इन्टरनेट वेबसाइट पर अपने नाम से प्रकाशित करवा रहे है।  यह निंदिनिय, अशोभनीय व विधि विरुद्ध कृत्य है। ऐसा करना ही है तो मेरा (लेखक) और ब्लॉग का नाम साभार देने में शर्म नहीं करें।तत्संबधी सुचना से मुझे मेरे मेल आईडी पर अवगत करना ना भूले। मेरा मकसद कृषि विज्ञानं की उपलब्धियो को खेत-किसान और कृषि उत्थान में संलग्न तमाम कृषि अमले और छात्र-छात्राओं तक पहुँचाना है जिससे भारतीय कृषि को विश्व में प्रतिष्ठित किया जा सके।

मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

प्रकृति की अनुपम फसल चौलाई (रामदाना)


                                                         रामदाना-एक बहुपयोगी बहुमूल्य फसल 

                                                                        डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर 
                                                                      प्राध्यापक (सश्यविज्ञान)
                                                                 इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, 
                                                                  कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)


 
                         भारत की अधिकांश जनसंख्या शाकाहारी प्रवृत्ति की है जिसके  भोजन में आवश्यक पोषक तत्वो यथा प्रोटीन, वसा, खनिज लवण, विटामिन्स) की कमी रहती है जिससे बड़ी तायदाद में बच्चे व वयस्क कुपो षण के  शिकार हो  रहे है । हमारे पारंपरिक भोजन में विविध  अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, रागी, कोदो, जौ, गेंहू, मक्का तथा दालों में अरहर, मूँग, उड़द, लोबिया, मसूर, चना, कुल्थी, तिवउ़ा आदि सम्मिलित हुआ  करते थे जिससे हमारे शरीर को  संतुलित मात्रा में पोषक तत्व प्राप्त होते रहते थे । फलस्वरूप हमारे पूर्वज  ऊर्जावान, स्वस्थ  एवं दीर्धजीवी हुआ करते   थे । हरित क्रांति के फलस्वरूप   गेंहू और  धान फसल चक्र का बोलवाला हो गया  गया जिसके चलते  गेंहू, चावल और थोड़ी सी  दाल हमारे भोजन का अहम् हिस्सा बन कर रह गए  तथा मोटे और पोषक अनाज आम आदमी की थाली से गायब ही हो गए। इस बदलाव का खामयाजा देश की बहुत बड़ी आबादी खाद्य असुरक्षा और कुपोषण के रूप में भुगतने  अभिषप्त है।  अभी हाल ही में हमारे देश में खाद्य  सुरक्षा कानून लागू किया गया है।  सही मायने में देश में खाद्य सुरक्षा के साथ-साथ  पोषण  सुरक्षा की भी दरकार है । इसके  लिए सीमित लागत में कठिन वातावरण में भी अधिकतम उत्पादन देने वाली अल्पप्रयुक्त फसलो  की खेती को भी  प्रोत्साहित करने की महती आवश्यकता है।  ऐसी ही सर्वगुणिय  आदर्श  फसल है-रामदाना, जिसे  राजगिरा तथा चौलाई  के नाम से  भी लोकप्रिय है। चौलाई अर्थात रामदाना एक बहुउद्देशीय एवं बहुमूल्य अल्प प्रयुक्त खाद्यान्न है जिसके  पत्ते से लेकर तना, फूल और  दाना उपयोग में लाये जाते है । इसका बीज पीला सफेद  खसखस जैसा दिखता है । आमटूर  पर रामदाने की खेती सब्जी-भाजी और  दानो  के  लिए की जाती है । राजगिरा को  दाना या आटा दोनों  रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है । इसके  दानो  को  फुलाकर इससे अनेको प्रकार के  स्वादिष्ट व पौष्टिक खाद्य पदार्थ जैसे लड्डू, चिक्की, हलवा आदि तैयार किये जाते है । अमेरिका में राजगिरा से विविध बैकरी पदार्थ यथा ब्रेड, बिस्कुट, पास्ता, पेस्ट्री, केक  आदि तैयार किये जाते है ।
                 दरअसल बथुआ कुल (चिनोपोडेसी) में जन्मी यह कूट धान्य (स्युडोसीरियल-नान-सीरियल) है जो  मनुष्य के  लिए आवश्यक पोषक तत्वो के  लिहाज से अत्यन्त धनी और  गुणकारी है । मेहनतकश किसान इसे खाकर ऊर्जायुक्त होकर ईश्वर का शुक्रिया अदा करते थे । इसके  लाभो से उपकृत होकर उन्होने इसका नाम रामदाना (भगवान का दाना) और  राजगीरा (शाही अनाज) रखा जिसे अंग्रेजी में ऐमरंथ कहते है । ऐमरंथ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत से हुई मानी जाती है जिसका भावार्थ मृत्यु की संभावना को  कम करना है । पौष्टिकता से परिपूर्ण होने के  कारण इसको  उपवास के  दिनों  मे खाया जाता है । इसमें गेंहू, चावल की अपेक्षा  प्रोटीन की मात्रा अधिक पायी जाती है । चौलाई के  दानो में पाई जाने वाली आवश्यक अमीनो  अम्ल व लाइसीन की मात्रा अन्य खाद्यान्न की तुलना में ज्यादा होती है । शाकाहरी लोगों के  लिए चौलाई एक विशेष खाद्य स्त्रोत  है जिसकी गुणवत्ता मछली में उपलब्ध प्रोटीन के  बराबर मानी जाती है । गेहूँ की तुलना में चौलाई के  दानो  में 10 गुना से अधिक कैल्शियम, चार गुना से अधिक वसा, दो  गुना रेशा व तीन गुना से अधिक लोहा पाया जाता है । इसके  अलावा मानव को  स्वस्थ्य व उर्जावान रखने के  लिए तमाम आवश्यक पोषक तत्व इस नन्हे बीज में विद्यमान  है तभी तो  इसके  100 ग्राम दानो  का सेवन करने से 410 कि.ग्रा. कैलौरी  हमें प्राप्त होती है जो  कि अन्य अनाजो  से काफी अधिक है ।
                               गेहूं, चावल व रामदानें का पोषक मान (प्रति 100 ग्राम दाना)
 पोषक तत्व                             गेंहू                            चावल            रामदाना (चौलाई) 
प्रोटीन (ग्राम)                            11.8                               6.8                              15.6
वसा (ग्रा.)                                  1.5                                0.5                               6.3
रेशा (ग्रा.)                                   1.2                                0.2                                2.4
खनिज लवण (ग्रा.)                    1.5                                0.7                                2.9
कैल्शियम (मि.ग्रा.)                     41                                10                                 222
लाईसिन (ग्रा.)                            2.9                                3.7                                5.5
मिथिय¨निन (ग्रा.)                      1.5                                2.4                                 2.6
सिस्टीन (ग्रा.)                             2.2                               1.4                                  2.1
आईस¨ल्युसिन (ग्रा.)                   3.3                               3.9                                  3.9
 
लोहा (मि .ग्रा.)                           3.5                               1.8                                  13.9
ऊर्जा (कि.ग्रा.कैल¨री)                 346                               345                                 410
            
            इसके पत्तो  की भाजी चौलाई के  रूप में  आज भी लोकप्रिय है तथा वर्ष की सभी ऋतुओ में हमें उपलब्ध रहती  है । यहीं नहीं जन-जातीय क्षेत्रों  में रामदाने का प्रयोग अनेक प्रकार के  रोग दोष  दूर करने में बखूबी से किया जाता है । इसके अलावा रामदाने के  तेल में स्क्वालिन नामक पदार्थ पाया जाता है जिसे सौन्दर्य प्रसाधनो , दवा तथा कम्प्यूटर की डिस्क की चिकनाई में प्रयोग किया जाता है ।

रामदाना की प्रजातियाँ                 
             चौलाई, रामदाना या राजगिरा के  नाम से जाने जाना वाला अमरन्थेसी कुल का यह पौधा  सीधा बढ़ता है जिसकी पत्तियाँ चौड़ी व बालियाँ भूरी अथवा लाल रंग की होती है । इसकी चार प्रजातियाँ- अमरेन्थस हाईप¨कान्ड्रएकस, अमरेन्थस कारडेन्टस, अमरेन्थस एडूलिस, अमरेन्थस क¨रून्टस दानो के  लिए लगाई जाती है । सब्जी के  लिए मुख्यतः अमरेन्थस डूबियस, अमरेन्थस व¨लीटन, अमरेन्थस विरीडीस, अमरेन्थस ट्राइकलर का उपयोग किया जाता है, जबकि अमरेन्थस हाइब्रिड नामक प्रजाति सब्जी व चारे के  लिए लगाई जाती है ।

रामदाना उत्पादन की सस्य तकनीक
                  विश्व के  अनेक देशो में चौलाई-रामदाना की खेती प्रचलित है । भारत में इसकी खेती जम्मू कश्मीर से लेकर दक्षिण व उत्तर पूर्वी भारत में अल्प प्रयुक्त फसल के  रूप में की जाती है ।  देश के  पर्वतीय क्षेत्रों  में रामदाना एक  नकदी फसल के  रूप में उगाई जाती है  तथा पहाड़ियो के भोजन का अहम् हिस्सा रखती है  । रामदाने की खेती गैर उपजाऊ, कंकरीली-पथरीली भूमियो  तथा कम वर्षा वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जाती है । रामदाने की फसल में सूखा सहन करने की अच्छी क्षमता होती है ।

भूमि का चयन एवं खेत की तैयारी                
            रामदाने की खेती अमूमन सभी प्रकार की भूमियो  मे की जा सकती है परन्तु अच्छी उपज के  लिए जल निकास युक्त बलुई दो दोमट मिट्टी उत्तम रहती है । पौध  बढ़वार और विकास के  लिए मृदा की पीएच मान 6 से 8 के  मध्य अच्छा माना जाता है ।
             रामदाने का बीज बहुत छोटा होता है । अतः खेत की अच्छी प्रकार जुताई कर मिट्टी को  भुरभुरा बना लेना चाहिए जिससे बीजो  का मृदा से संपर्क अच्छी प्रकार से हो  सके  इसके  लिए खेत में 2-3 बार जुताई कर पाटा लगाएं व खेत को  समतल कर लेना चाहिए ।
उन्नत किस्मो  का चुनाव               
             अखिल भारतीय अल्प प्रयुक्त फसल अनुसंधान परियोजना द्वारा रामदाने की अनेको  उन्नत किस्में विकसित की गई है । मैदानी क्षेत्रों  के  लिए उपयुक्त रामदाना की किस्मो  का विवरण अग्र प्रस्तुत है ।
सुवर्णा: इस किस्म के  पौधे  120-130 सेमी. ऊँचे होते है जो  80-90 दिन में पक कर तैयार हो  जाते है । इसकी उपज क्षमता 16 क्विंटल  प्रति हैक्टर है ।
गुजरात अमरेन्थ-1: यह किस्म 100-110 दिन में तैयार होकर  लगभग 20 क्विंटल  प्रति हैक्टर उपज देती है ।
गुजरात अमरेन्थ-2: यह शीघ्र तैयार होने वाली (90 दिन) उन्नत किस्म है जिससे लगभग 23 क्विंटल  प्रति हैक्टर उपज प्राप्त होती है ।
कपिलासाः इस किस्म  पौधे  165 सेमी. लम्बे होते है । फसल 95 दिन में तैयार होकर लगभग 13-14 क्विंटल  प्रति हैक्टर उपज देती है । यह कीट-रोग प्रतिरोधी किस्म है ।
गुजरात अमरेन्थ-3: इस किस्म के  पौधे  130-150 सेमी. लम्बे होते है । यह 90-100 दिन में पककर तैयार ह¨ जाती है तथा प्रति हैक्टर 12-13 क्विंटल  उपज देने में सक्षम है ।
आर.एम.ए.-4: यह किस्म 122 दिन में तैयार होकर  13-14 क्विंटल प्रति हैक्टर उपज देती है ।
आर.एम.ए.-7: इस किस्म के पौधे  120 सेमी. ऊँचे ह¨ते है तथा 126 दिन में तैयार होकर  लगभग 14-15  क्विंटल प्रति हैक्टर उपज देती है ।
सही समय पर करें बुवाई                
               दानो एवं सब्जी-भाजी के  लिए रामदाने की फसल अमूमन वर्ष भर ली जा सकती है । मैदानी क्षेत्र¨ में इसकी बुवाई जून से जुलाई और  अक्टूबर से नवम्बर में करने पर अधिक उपज प्राप्त होती है । सिंचाई की सुविधा ह¨ने पर इसे फरवरी-मार्च में भी बोया जा सकता है ।
कितना बीज और  कैसे करें बुवाई                
                 बीज की मात्रा बुवाई की विधि पर निर्भर रहती है । छिड़कवां विधि से बुवाई करने पर 2 किग्रा. तथा कतार विधि से बुवाई करने पर 1.2 से 1.5 किग्रा प्रति हैक्टर बीज पर्याप्त रहता है । प्रायः किसान छिटकवां विधि से बुवाई करते है क्योकि  इससे कम मेहनत में सुगमता से बुवाई की जा सकती है । परन्तु अधिकतम उपज के  लिए बुवाई पंक्तियो  में करना चाहिए । कतार विधि से बुवाई करने से सस्य क्रियाओ  में आसानी होती है । साथ ही उचित पौध  संख्या और  समुचित बढवार होने से उपज अधिक प्राप्त होती है । कतार से कतार 45 सेमी. तथा पौध से पौध  मध्य 15 सेमी. का फांसला रखना उत्तम रहता है । बीज क¨ 2 सेमी. की गहराई पर बोना चाहिए । ध्यान रखें की बुवाई करते समय खेत में पर्याप्त नमीं रहे वरना अंकुरण प्रभावित ह¨ सकता है । आसानी से बुवाई करने के  लिए बीज को  रेत के  साथ मिलाकर (1:4) बोया जाना अच्छा रहता है ।
खाद एवं उर्वरक             
                रामदाने की फसल प्रायः कम उपजाऊ एवं सीमांत भूमियो  में की जाती है । खाद एवं उर्वरको  का इस्तेमाल लेशमात्र किया जाता है जिससे किसानो को कम उपज प्राप्त होती है। सामान्य भूमियो में 5-6 टन गोबर की खाद को खेत में एक समान बखैर कर जुताई कर देना चाहिए । इसके  अलावा बुवाई के  समय 60 किग्रा. नाइट्रोजन, 40 किग्रा. फास्फ़ोरस और  20 किग्रा. पोटाश  प्रति हैक्टर की दर से कतार में देना लाभप्रद पाया गया है ।
सिंचाई एवं खरपतवार नियंत्रण               
                खरीफ में बोई गई रामदाने की फसल में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है । रबी एवं जायद में बोई जाने वाली फसल में 3-4 सिंचाईयो  की आवश्यकता ह¨ती है । फूल और  दाना बनते समय खेत में पर्याप्त नमीं रहने से उपज में बढ़ोत्तरी होती है । वर्षा ऋतु के  समय खेत से में जल निकास की व्यवस्था अवश्य होना चाहिए । बुवाई के 5-6 दिन बाद खेत में खरवतवार उग आते है जिनके  नियंत्रण हेतु आवश्यकतानुसार निदाई गुड़ाई करना चाहिए ।
कीट रोग प्रबंधन
              सामान्यत: रामदाने की फसल में कीट ब्याधि का प्रकोप कम ही होता  है । यदा कदा पौधो  पर पर्णजालक कीट का प्रकोप हो  जाता है । यह कीट पत्तियो को ¨ क्षति पुहंचाता है । इसके  नियंत्रण के  लिए मिथाईल-ओ-डेमिटान या डाई मिथेएट के  0.1 प्रतिशत अथवा क्यूनालफास के 1.5 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना लाभप्रद रहता है ।
कटाई एवं उपज
                   रामदाने की  फसल लगभग 90-100 दिन में तैयार हो  जाती है । बालियाँ हल्की पीली पड़ने पर कटाई कर लेना चाहिए . बिलंब से काटने पर दाने झड़ने लगते है । अच्छी प्रकार सुखाने के  बाद मड़ाई कर दाना  साफ कर लें । सामान्यतौर पर रामदाने की औसतन  15-16  क्विंटल प्रति हैक्टर तकदानो की  उपज प्राप्त होती है । उन्नत सस्य विधियो का अनुशरण करते हुए 20-25  क्विंटल प्रति हैक्टर तक उपज ली जा सकती है ।बुवाई के  30 दिन बाद पत्तियाँ हरी सब्जी के  रूप में इस्तेमाल अथवा बाजार में बेच कर मुनाफा अर्जित किया जा सकता है ।

ताकि सनद रहे: कुछ शरारती तत्व मेरे ब्लॉग से लेख को डाउनलोड कर (चोरी कर) बिभिन्न पत्र पत्रिकाओ और इन्टरनेट वेबसाइट पर अपने नाम से प्रकाशित करवा रहे है।  यह निंदिनिय, अशोभनीय व विधि विरुद्ध कृत्य है। ऐसा करना ही है तो मेरा (लेखक) और ब्लॉग का नाम साभार देने में शर्म नहीं करें।तत्संबधी सुचना से मुझे मेरे मेल आईडी पर अवगत कराना ना भूले। मेरा मकसद कृषि विज्ञानं की उपलब्धियो को खेत-किसान और कृषि उत्थान में संलग्न तमाम कृषि अमले और छात्र-छात्राओं तक पहुँचाना है जिससे भारतीय कृषि को विश्व में प्रतिष्ठित किया जा सके।

गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

विलम्ब से गेहूँ बुवाई की उन्नत तकनीक



                                                                        डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर 
                                                                      प्राध्यापक (सश्यविज्ञान)
                                                                 इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, 
                                                                  कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)

    भारत के अनेक गेहूँ उत्पादक राज्यों धान फसल की खेती के कारण  गेहूँ की बुवाई में विलम्ब हो जाता  है । मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों  में गेहूँ की बुवाई बहुधा धान, तोरिया, आलू, गन्ना की पेड़ी या अरहर के बाद की जाती है जिससे गेहूँ की उपज काफी कम प्राप्त होती है।गेहूँ की विलम्बित बुवाई से भी अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है, इसके लिए निम्न सस्य तकनीकें अपनाना चाहिए:
1. विलम्बित बुवाई के लिए कम अवधि में तैयार होने वाली किस्में जैसे एचडी 2285, राज 3777, राज 3765, अरपा  आदि का प्रयोग किया जाना चाहिए ।
2. प्रति हैक्टर 125 किग्रा. बीज दर (सामान्य से 25 प्रतिशत अधिक) का प्रयोग करना चाहिए क्योकि देर से बुवाई करने से पौधो  में कल्ले  कम निकलते है । बीज को  रात भर पानी में भिंगो कर 24 घण्टे बाद अंकुरित कर बोआई हेतु प्रयुक्त करें ।
3. खेत की अन्तिम जुताई के समय सड़ी हुई गोबर की खाद  5-7 टन प्रति हैक्टर की दर से मिट्टी में मिलाएं । फसल में उर्वरक नाइट्रोजनःफॉस्फोरसःपोटाश को  क्रमशः 80:40:30 किग्रा. प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करना चाहिए । नत्रजन की मात्रा  सामान्य गेहूँ की अपेक्षा कम ही रखी जाती है ।
4. विलम्ब से बोये गये गेहूँ में सामान्य की अपेक्षा जल्दी-जल्दी सिंचाइयो  की आवश्यकता पड़ती है । पहली सिंचाई बोने के 25-30 दिन पर शिखर जडें  बनते समय अवश्य करें । आगामी सिंचाईयाँ फसल व मृदा की आवश्यकतानुसार 15-20 दिन के अन्तराल पर करें ।
5.अन्य सभी सस्य क्रियाएँ सामान्य गेहूँ की भांति अपनाना चाहिए ।

काबुली चने की खेती भरपूर आमदनी देती

                                                  डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर प्राध्यापक (सस्यविज्ञान),इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि महाव...