बुधवार, 17 अप्रैल 2013

धान की भरपूर उपज एवं मुनाफे के लिए आवश्यक है कीट एवं रोगों से फसल की सुरक्षा

धान की फसल अवधि के दौरान गर्म एंव नम वातावरण रहता है जो कि कीट पतंगों की वृद्धि तथा प्रजनन के लिए उपयुक्त रहता है।सामान्यत: धान की उपज घटाने में 33 प्रतिशत खरपतवार, 26 प्रतिशत, 20प्रतिशत कीट, 8 प्रतिशत चूहे,3 प्रतिशत चिड़ियाँ एंव 10 प्रतिशत अन्य कारक उत्तरदायी हैं। धान फसल से  भरपूर उपज एवं आर्थिक लाभ के लिए फसल को हानिकारक कीट एवं रोगों से बचाना आवश्यक होता है। धान के प्रमुख हानिकारक कीट-रोग तथा उनके नियंत्रण के उपाय अग्र प्रस्तुत है:

धान के प्रमुख कीट एवं  नियंत्रण 


               धान की लगभग सभी अवस्थाओं में किसी-न-किसी विनाशकारी कीटों के आक्रमण की संभावना बनी रहती है। विभिन्न अवस्थाओं में संभावित कीट प्रकोप निम्नानुसार हो सकता हैः
थरहा अवस्था: गंगई, तना छेदक, थ्रिप्स व हरा माहो।
कंसा अवस्था: गंगई, तना छेदक, हरा व सफेद माहो, भूरा माहो, चितरी व बंकी, माइट, हिस्पा।
गभोट अवस्था: तना छेदक, भूरा व सफेद माहो।
दूधिया व बाली पकने की अवस्था: तना भेदक, भूरा व सफेद माहो।
समन्वित कीट नियंत्रण के प्रमुख उपाय
1. ग्रीष्म की जुताई एंव फसल चक्र: ग्रीष्म काल में वर्षा होने पर गहरी जुताई करें जिससे फाफा के अंड़े, तनाछेदक व गंगई की इल्लियाँ, कटुआ कीट की इल्ली व शंखी नष्ट हो जाय। एक ही प्रकार के कीट का आक्रमण होने की दशा में फसल को बदलकर बोने से कीट प्रकोप कम होता है।
2. समय से बोनी व रोपाई: जून में थरहा की बुवाई और जुलाई में रोपाई करें तो कीट समस्या कम हो जाती है।
3. निरोधक जातियों को समस्या ग्रस्त क्षेत्र में लगायें जैसे-गंगई प्रभावित क्षेत्र में: सुरेखा, फाल्गुना, रूचि
, अभया, दंतेश्वरी,महामाया, आई. आर. 36 हरा माहो संभावित क्षेत्रों में विक्रम, आर्या, प्रगति तथा चितरी व बंकी प्रभावित क्षेत्रों में महामाया किस्म लगाना चाहिए।
4. शीघ्र पकने वाली धान की  अन्नदा जैसी किस्मों को समय पर लगाने से कीटों का आक्रमण कम होता है।
5. निरीक्षण पथ: हर तीन मीटर रोपाई के बाद 30 सेमी. की खाली जगह छोड़े। खेत में समय-समय पर निरीक्षण करते रहें। निरीक्षण पथ से दवा के छिड़काव एंव भुरकाव में भी सुविधा होती है।
6. स्वच्छ खेती: खेत में कीड़ो के अन्य पोषक पौधों (खरपतवार आदि) को नष्ट करते रहें, जिससे  कीड़ों को छुपने व पनपने का स्थान न मिल सकें।
7. प्रकाश प्रपंच: रात्रि में प्रकाश की ओर आकर्षित करने हेतु कीडो़ं के लिये प्रकाश प्रपंच लगायें। जिससे तना  छेदक, गंगई, माहो, फाफा, चितरी, बंकी इत्यादि के प्रौढ दिखने पर अंदाज लगा सकते हैं कि अगले 10-15 दिनों में कौन से कीड़ों का आक्रमण होने वाला है तथा किस प्रकार की दवाई संग्रहित करनी है इसकी योजना बना सकते हैं।
8. रोपा लगाने के पूर्व थरहा (रोपणी) के प्रभावित भाग निकाल दें: रोपणी से पौधा उखाड़कर रोपा लगाने के पूर्व गंगई के पोंगे, तनाछेदक से प्रभावित कंसे, तनाछेदक के अंड़े समूह हिस्पा व चितरी से प्रभावित पक्तियों को निकाल कर नष्ट कर दें।
9. परजीवी व परभक्षी जीवों का संरक्षण करें: प्रकृति ने स्वतः ही कीटों की जनसंख्या नियंत्रण में रखने के लिए परजीवी, परभक्षी एंव रोगजनक की व्यवस्था रखी है।लगभग 40-60 प्रतिशत कीट इन प्राकृतिक शत्रुओं द्वारा स्वतः ही नियंत्रण में रहते है।धान फसल के मित्र जीवों की संख्या बढ़ाने हेतु कीटनाशकों का प्रयोग सावधानीपूर्वक करना चाहिए।
10. उर्वरकों का संतुलित मात्रा में उपयोग: नत्रजन युक्त उर्वरक फसल में 3-4 बार बाँट कर दें। स्फुर व पोटाँश युक्त खाद की निर्धारित मात्रा खेत में अवश्य डालें। पोटाश तत्व से पौधों में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जातीहै अधिक प्रकोप होने की स्थिति में कीट नियंत्रण करने के बाद नत्रजन उर्वरक देवें।
11. रासायनिक नियंत्रण: जब कीडे आर्थिक हानि स्तर पर पहुँचने लगे  तब कीटनाशकों का उपयोग करे।
धान की विभिन्न अवस्थाओं में रासायनिक कीट नियंत्रण
थरहा अवस्था
 गंगई, तनाभेदक, थ्रिप्स व हरा माहो -कार्बोफुरान या फोरेट दानेदार दवा एक किलो ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर अथवा मोनोक्रोटोफास या कार्बेरिल 0.5 किलो ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर का उपयोग करें।
गंगई ग्रसित क्षेत्र में रोपाई के पहले धान के पौधे की जड़ों का उपचार क्लोरपायरीफास 0.02 प्रतिशत घोल में 12 घंटे तक या एक प्रतिशत यूरिया के साथ इसी दिवा के घोल में 3 घंटे तक डुबाकर करें।
कंसा अवस्था
गंगई: कार्बोफुरान 0.75 किलो ग्राम, फोरेट, क्विनालफास या फेन्थियान दानेदार दवा एक किलोग्राम सक्रिया तत्व प्रति हेक्टेयर का उपयोग करें।
तनाभेदक: कार्बोफुरान दानेदार 0.75 किलो ग्राम स. त. प्रति हेक्टेयर या फोरेट, क्विनालफास 1.0 कि. ग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर का उपयोग करें।
हरा व सफेद माहो: मोनोक्रोटोफास, कार्बेरिल, क्लोरपायरीफास, क्विनालफास, फास्फामिडान 0.5 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व या सायपरमेथ्रिन 0.1 कि. ग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर दानेदार दवा का उपयोग करें।
भूरा माहो: कार्बोरिल 0.75 कि.ग्रा.,मोनोक्रोटोफास, फोसालोन या क्लोरपायरीफास 0.5कि.ग्रा.सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर का छिड़काव करें।
चितरी व बंकी:  मोनोक्रोटोफास, ट्राइएजोफास या फेन्थियान 0.5 कि. ग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें।
माइट: केल्थेन 0.5 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें। सक्रिय तत्व प्रतिहेक्टेयर छिड़काव करें।
हिस्पा: फोसालोन, क्लोरपायरीफास, क्रिनालफास, मोनोक्रोटोफास या फेन्थियान 0.5 कि. ग्रा. सक्रिय तत्व के प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें।
गभोट अवस्था 
तनाभेदक: क्विनालफास, फोसालोन, मोनोक्रोटोपास, क्लोरपायरीफास  0.5 किलो ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर छिड़काव करे। यदि आक्रमण कम न हो तो 7 से 10 दिन बाद दोबारा छिड़काव करे। चितरी, हरा माहो, माइट के लिये पहले बतलाये अनुसार दवा डाले।
भूरा माहो व सफेद माहो: कार्बेरिल एक किलो ग्राम, मोनोक्रोटोफास, फोसालोन या क्लोरपायरीफास 0.5 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व प्र्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करें। दानेदार दवा का उपयोग न करें।
दूधिया व वाली पकने की अवस्था
तना भेदक: उपरोक्तनुसार दवाओं का दोपहर बाद छिड़काव करें।
भूरा माहो एंव हरा माहो: उपर्युक्तानुसार दवाओं का छिड़काव करें या फालीडाल, कार्बेरिल या क्रिनालफास पावडर 25 से 30 कि. ग्रा. प्रतिहेक्टेयर उपयोग करें। इससे कटुआ कीट का नियंत्रण भी होता है। छिड़काव शाम के समय करें। संभव हो तो पावर स्प्रेेयर का उपयोग करें। फसल कटने के पहले कटुआ कीट का अधिक आक्रमण होने पर मैलाथियान 500 मि.ली. व डाइक्लोरवास 225 मि. ली. मिलाकर उपयोग करें।
दवा घोल बनाने पानी की मात्रा:
थरहा अवस्था 500-600 लीटर प्रति हेक्टेयर
रोपाई से 30 दिन तक 200-300 लीटर प्रति हेक्टेयर
रोपाई के 31 से 50 दिन तक        500-600 लीटर प्रति हेक्टेयर
रोपाई के 51 दिन बाद 700-800 लीटर प्रति हेक्टेयर

धान के प्रमुख रोग एवं नियंत्रण के उपाय 

धान का सर्वाधिक महत्वपूर्ण रोग बदरा (झुलसा) है। इसके बाद पर्णच्छद विगलन रोग, भुरा धब्बा रोग, कूट कलिका रोग, धारीदार जीवाणु जनित रोगों का प्रकोप भी अनेक राज्यों  में देखा गया है।
1. झुलसा रोग (ब्लास्ट): इसके लक्षण पत्तियों, बाली की गर्दन एंव तने की निचली गठानों पर प्रमुख रूप से दिखाई देते हैं।प्रारंभिक अवस्था में निचली पत्तियों पर हल्के बैंगनी रंग के छोटे-छोटे धब्बे बनते हैं।जो धीरे-धीरे बढ़कर आँख के समान बीच में चैडे व किनारों पर सँकरे हो जाते हैं। इन धब्बों के बीच का रंग हल्के भूरे रंग होता है। जिससे दानों के भरने पर असर पड़ता है। फसल काल के दौरान जब रात्रि का तापमान 20 से 220 से. व आर्द्रता 95 प्रतिशत से अधिक होती है तब इस रोग का तीव्र प्रकोप होने की संभावना होती है।
नियंत्रण ऐसे करें : रोग के प्रारंभिक लक्षण दिखते ही हिनोसान या बाविस्टिन (0.1प्रतिशत) रसायन का छिड़काव 12-15 दिन के अन्तर से करना चाहिए। रोग रोधी जातियोें जैसे -रासी, आदित्य, तुलसी, एम. टी. यू., महामाया आदि की बुवाई करनी चाहिए। समय पर बुवाई और संतुलित उर्वरकों का उपयोग इस रोग को सीमित करने में मदद करते हैं।
2. जीवाणु जनित झुलसा रोग (बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट): इस रोग के प्रारंभिक लक्षण पत्तियों पर रोपोई या बुवाई के 20 से 25 दिन बाद दिखाई देते हैं।सबसे पहले पत्ती के किनारे वाला ऊपरी भाग हल्का नीला-सा हो  जाता है तथा फिर मटमैला हरापन हरापन लिये हुए पीला सा होने लगता है रोग ग्रसित पौधे कमजोर हो जाते हैं और उनमें कंसे कम निकलते हैं। दाने पूरी तरह नहीं भरते व पैदावार कम हो जाती है।
नियंत्रण ऐसे करें : नियंत्रण हेतु संतुलित उर्वरकों का उपयोग करना चाहिए। नत्रजनयुक्त खादों का उपयोग निर्धारित मात्रा से नही करना चाहिए। रोग होने की दशा में पोटाॅश का उपयोग लाभकारी होता है। रोग होने की दशा में खेत से अनावश्यक पानी निकालते रहना चाहिए। रोगरोंधी अथवा रोग सहनशील किस्मों जैसे-आशा, महामाया, अभया तथा बम्लेश्वरी का चुनाव करना चाहिये। रासायनिक उपचार इस बीमारी के लिए प्रभावकारी नहीं है।
3. पर्णच्छद विगलन रोग(शीथ राट): इस रोग के लक्षण धान की पोटरी वाली अवस्था में दिखाई देते हैं।पोटरी के निचले हिस्से पर हल्के भूरे रंग के धब्बे बनते हैं। इस रोग की वजह से बाली पौटरी के बाहर नहीं आ पाती है। रोग की वजह से बदरा बढ़ जाता है और उत्पादन बहुत कम हो जाता है।
नियंत्रण ऐसे करें : धान बीज को बुवाई से पूर्व नमक के घोल मेें डूबाने से हल्के तथा खराब बीज (बदरा) ऊपर आ जाते हैं एंव स्वस्थ पुष्ट बीज नीचे बैठ जाते हैं। स्वस्थ बीज का चयन कर बुवाई के लिये उपयोग करना चाहिए। बीजोपचार कर बोआई करने पर इस रोग का प्रसार कम करने में मदद मिलती है।पोटरी अवस्था के समय बाविस्टिन (0.1प्रतिशत) अथवा डाइथेन एम-45 (0.3प्रतिशत) का छिड़काव करना लाभकारी है।रोग रोधी किस्मों का चयन करना चाहिए।
4. भूरा धब्बा रोग (ब्राउन स्पाट): पत्तियों पर भूरे रंग के धब्बे बन जाते है जो गोल या अंडाकार होते हैं व पत्तियों की सतह पर समान रूप से फैले रहते हैं। ये धब्बे प्रायः एक पीले रंग के वृत्त से घिरे रहते हैं जो इस रोग की खास पहचान है। दानों के ऊपर भी बहुत छोटे-छोटे गहरे भूरे या काले रंग के धब्बे बनते हैं।बीज अंकुरण के समय पौध सड़ने की वजह से पौधों की संख्या कम हो जाती है जो धान उत्पादन कम होने का प्रमुख कारण है।
नियंत्रण ऐसे करें : बीजोपचार द्वारा इस रोग से होने वाले नुकसान को काफी हद तक कम किया जा सकता है। रोग की तीव्रता बहुत अधिक होने पर मैन्कोजेब 0.25 प्रतिशत अथवा हिनोसान 0.1 प्रतिशत का छिड़काव लाभप्रद रहता है। निरोधक जातियों का चुनाव करना चाहिए। खेत को समतल रखें तथा संतुलित उर्वरकों का उपयोग करें। ध्यान रखें कि पानी की कमी न होने पाये इसके लिये समयानुसार सिंचाई करते रहें।
5. कूट कलिका रोग: धान का यह रोग फफूंद  से होता है। इस क्षेत्र में इस रोग को लाई फूटना कहते है। रोग के लक्षण बाल निकलने के बाद दानों पर दिखाई देते है। जिससे उन दानों का आकार काफी बड़ा हो जाता ग्रसित दानों का रंग पहिले मटमैला हरा फिर नारंगी व धान पकने के समय काला हो जाता है। इस प्रकोप की वजह से दाने स्मट बाल (गेंद) में बदल जाते हैं।इसमें काले रंग का पावडर होता है जो बीजाणुओं का समूह होता है।
नियंत्रण ऐसे करें : संतुलित मात्रा में उर्वरकों का उपयोग करे।बाली निकलने की प्रारंभिक अवस्था में और 50 प्रतिशत पुष्पीकरण होने पर फफूँदनाशकों जैसे मेंकोजेब 0.25 प्रतिशत या ताम्रयुक्त दवा के दो छिड़काव रोग को नियंत्रित करने में सहायक होते हैं। जिन किस्मों में इस रोग का प्रकोप अधिक होता है उन किस्मों को नही उगाना चाहिए।
6. धारीदार जीवाणु जनित रोग: इस रोग के लक्षण पत्तियों की सतह पर पीली मटमैली धारियों के रूप में दिखाई देते हैं।जो पत्तियों की मुख्य शिराओं के समानान्तर होती हैं।पत्ती का ग्रसित भाग पहले नारंगी से ईट के रंग का होकर सूखने लगता है।पौधे कमजोर हो जाते है व उत्पादन कम हो जाता है।
नियंत्रण के उपाय: जीवाणु रहित प्रमाणित बीज विश्वसनीय स्थान से लेकर उपयोग में लाएँ। खेतों के आस-पास तथा चारों ओर पायी जाने वाली जंगली धान की रोगग्राही किस्मों को नष्ट कर देना चाहिए। खड़ी फसल में रोग के लक्षण दिखने पर स्ट्रेप्टोसाइक्लीन (0.025 प्रतिशत) एंव कापर आक्सी क्लोराइड  (0.5 प्रतिशत)  का छिड़काव करना चाहिए। रोगरोधी किस्में जैसे जागृति, कृष्णा, साबरमती आदि का चयन करना चाहिए।
7. खैरा रोग: यह रोग मिट्टी  में जस्ते की कमी से होता है। प्रभावित फसल की निचली पत्तियाँ पीली पड़ना शुरू हो जाती हैं और बाद में पत्तियों पर कत्थई रंग के छिटकवाँ धब्बे उभरने लगते है। कल्ले कम निकलते है तथा पौधों की वृद्धि रूक जाती है।
नियंत्रण के उपाय: यह रोग न लगे, इसके लिए 25 किग्रा. जिंक सल्फेट प्रतिहे. की दर से रोपाई या बोआई से पूर्व खेत की तैयारी के समय डालना चाहिए। रोग लगने के बाद इसकी रोकथाम के लिए 5 किग्रा. जिंक सल्फेट तथा 2.5 किग्रा. चूना 600-700 लीटर पानी में घोलकर प्रति. हे. छिड़काव करें।

कोई टिप्पणी नहीं:

काबुली चने की खेती भरपूर आमदनी देती

                                                  डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर प्राध्यापक (सस्यविज्ञान),इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि महाव...