बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

पशुओं के लिए पौष्टिक आहार- सदाबहार अदभुत हरा चारा है अजोला

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर 
प्रोफेसर (एग्रोनॉमी ),  कृषि महाविद्यालय,
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय,कृषकनगर,रायपुर (छत्तीसगढ़)

             कृषि और पशु पालन का चोली दामन का साथ है परन्तु भारत में  पशुधन को साल में 8-9 महीने अपौष्टिक सूखा चारा ही नसीब होता है। दरअसल वर्ष के कम से कम दो तिहाई समय  देश के सभी क्षेत्रों  में हरे चारे की किल्लत रहती है।  किसान अपने पशुओं  को  सुबह शाम  धान का पुआल या अन्य अपौष्टिक सुखा चारा ही दे पाते  है और  फिर चरने के  लिए खुल्ला छोड़ देते है । दुधारू पशुओं को प्रतिदिन कम से कम दो किलो दाने की आवश्यकता होती है।  शहरों  के  आसापास स्थित डेयरी कृषक अपने पशुओं  को धान कट्टी या फिर गेंहू भूषा के साथ दाना-खल्ली देते है । धान पैरा कट्टी तथा गेंहू भूषा 1-2 रूपये प्रति किलो  व दाना -खल्ली 10-15 रूपये प्रति किलो  की दर से बाजार से लेना होती है । चारा दाना मंहगा होने के  कारण पशुओं  को  पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल पाता है। इसके चलते पशुओं में तेजी से बढ़ती कुपोषाण की समस्या के कारण आज हमारे यहां प्रति पशु प्रति दिन का दूध उत्पादन एक लीटर या इससे भी कम है। इसी वजह से दुग्ध उत्पादन घाटे का व्यवसाय होता जा रहा है जिससे  किसानो का पशुधन के प्रति मोह भंग होता जा रहा है।
               पशुआहार के  विकल्प की खोज में एक विस्मयकारी फर्न-अजोला सदाबहार चारे के  रूप में उपयोगी हो  सकता है। दूध की बढ़ती मांग के लिए आवश्यक है कि  पशुपालन व्यवसाय को  अधिक लाभकारी बनाया जाए। इसके लिए जरूरी है की पशु पालन में दाने-चारे में आने वाली लागत (वर्तमान में यह 70 प्रतिशत से अधिक बैठती है ) को कम करना होगा।  इसमें प्रकृति प्रदत्त अजोला की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। यह सर्वविदित है कि पशुओं के  संतुलित आहार में हरे चारों की अहम भूमिका होती है, इसे नाकारा नहीं जा सकता है। भारत में पशुओं के  लिए हरे चारे की उपलब्धता में निरंतर कमी परिलक्षित हो  रही है। वनों  एवं पारंपरिक चारागाहों  का क्षेत्रफल दिनोंदिन घटता चला जा रहा है । कृषि के  आधुनिकीकरण की वजह से फसल प्रति-उत्पाद(भूसा,कड़वी, पैरा कुट्टी आदि) में भी कमीं आ रही है जोकि अन्यथा पशु आहार के  रूप में उपयोग किया जाता रहा है।  हरे चारे अथवा पौष्टिक आहार की इस कमीं की पूर्ति बाजार से मंहगे व गुणवत्ता विहीन पशु आहार से की जा रही है। यही वजह है जिसके  कारण दुग्ध उत्पादन लागत में वृद्धि और  पशुपालन घाटे का सौदा होता जा रहा है। इस समस्या के लिए अजोला उत्पादन  पशुपालको  के लिए वरदान बन सकता है।  इसे घर-आंगन में उगा सकते है और साल भर हरा चारा उत्पादन कर सकते हैं। देश के  विभिन्न क्षेत्रों से अजोला उत्पादन के  बेहतर नतीजे सामने आ रहे है ।

अजोला एक विस्मयकारी अद्भुत पौधा

                 दरअशल अजोला  तेजी से बढ़ने वाली एक प्रकार की जलीय फर्न है, जो  पानी की सतह पर तैरती रहती है। धान की फसल में नील हरित काई की तरह अजोला को भी हरी खाद के रूप में उगाया जाता है और कई बार यह खेत में प्राकर्तिक रूप से भी उग जाता है। इस हरी खाद से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है और उत्पादन में भी आशातीत बढ़ोत्तरी होती है।   एजोला की सतह पर नील हरित शैवाल सहजैविक के  रूप में विध्यमान होता है। इस नील हरित शैवाल को  एनाबिना एजोली के  नाम से जाना जाता है जो  कि वातावरण से नत्रजन के  स्थायीकरण के  लिए उत्तरदायी रहता है। एजोला शैवाल की वृद्धि के  लिए आवश्यक कार्बन स्त्रोत  एवं वातावरण प्रदाय करता है । इस प्रकार यह अद्वितीय पारस्परिक सहजैविक संबंध अजोला को  एक अदभुद पौधे के  रूप में विकसित करता है, जिसमें कि उच्च मात्रा में प्रोटीन उपलब्ध होता है।  प्राकृतिक रूप से यह उष्ण व गर्म उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में पाया जाता है। देखने में यह शैवाल से मिलती जुलती है और  आमतौर पर उथले पानी में अथवा धान के  खेत में पाई जाती है।

पशुओं को अजोला चारा खिलाने के लाभ

           अजोला सस्ता, सुपाच्य एवं पौष्टिक पूरक पशु आहार है। इसे खिलाने से वसा व वसा रहित पदार्थ सामान्य आहार खाने वाले पशुओं के दूध में अधिक पाई जाती है। पशुओं में बांझपन निवारण में उपयोगी है। पशुओं के पेशाब में खून की समस्या फॉस्फोरस की कमी से होती है। पशुओं को अजोला खिलाने से यह कमी दूर हो जाती है। अजोला से पशुओं में कैल्शियम, फॉस्फोरस, लोहे की आवश्यकता की पूर्ति होती है जिससे पशुओं  का शारिरिक विकास अच्छा  है। अजोला में प्रोटीन आवश्यक अमीनो एसिड, विटामिन (विटामिन ए, विटामिन बी-12 तथा बीटा-कैरोटीन) एवं खनिज लवण जैसे कैल्शियम, फास्फ़ोरस, पोटेशियम, आयरन, कापर, मैगनेशियम आदि प्रचुर मात्रा में पाए जाते है। इसमें शुष्क मात्रा के  आधार पर 40-60 प्रतिशत प्रोटीन, 10-15 प्रतिशत खनिज एवं 7-10 प्रतिशत एमीनो  अम्ल, जैव सक्रिय  पदार्थ एवं पोलिमर्स आदि पाये जाते है। इसमें काबर्¨हाइड्रेट एवं वसा की मात्रा अत्यंत कम होती है। अतः इसकी संरचना इसे अत्यंत पौष्टिक एवं असरकारक आदर्श पशु आहार बनाती है। यह गाय, भैंस, भेड़, बकरियों , मुर्गियों  आदि के लिए एक  आदर्श चारा सिद्ध हो रहा है।
                    दुधारू पशुओं पर किए गए प्रयोगो  से साबित होता है कि जब पशुओं को  उनके  दैनिक आहार के   साथ 1.5 से 2 किग्रा. अजोला प्रतिदिन दिया जाता है तो  दुग्ध उत्पादन में 15-20 प्रतिशत वृद्धि  दर्ज की गयी है। इसके  साथ इसे खाने वाली गाय-भैसों की दूध की गुणवत्ता भी पहले से बेहतर हो  जाती है। प्रदेश में मुर्गीपालन व्यवसाय भी बहुतायत में प्रचलित है। यह  बेहद सुपाच्य होता है और  यह मुर्गियों का भी पसंदीदा आहार है। कुक्कुट आहार के  रूप में अजोला का प्रयोग करने पर ब्रायलर पक्षियों के   भार में वृद्धि तथा अण्डा उत्पादन में भी वृद्धि पाई जाती है। यह मुर्गीपालन करने वाले व्यवसाइयों  के  लिए बेहद  लाभकारी चारा सिद्ध हो  रहा है। यही नहीं अजोला को  भेड़-बकरियों, सूकरों  एवं खरगोश, बतखों के आहार के  रूप में भी बखूबी इस्तेमाल किया जा सकता है।
                        सारणीः अन्य चारा फसलों  से अजोला का तुलनात्मक अध्ययन
चारा फसले एवं एज¨ला    वार्षिक उत्पादन (टन/हैक्टर)    शुष्क भार (%)    प्रोटीन  की मात्रा (%)
संकर नैपियर                                 250                                50                           4
रिजका (लूर्सन)                               80                                 16                          3. 2
ल¨बिया                                          35                                  7                           1. 4
ज्वार                                              40                                  32                         0. 6
अजोला                                          730                                 56                           20

कैसे करें अजोला का उत्पादन

                अजोला का उत्पादन बहुत ही आसान है। सबसे पहले किसी भी छायादार स्थान पर 2 मीटर लंबा, 2 मीटर चौड़ा तथा 30 सेमी. गहरा गड्ढा खोदा जाता है। पानी के रिसाव को रोकने के लिए इस गड्ढे को  प्लास्टिक शीट से ढंक देते है। जहां तक संभव हो  पराबैंगनी किरण रोधी प्लास्टिक सीट का प्रयोग करना चाहिए। प्लास्टिक सीट सिलपोलीन एक पौलीथीन तारपोलीन है जो  कि प्रकाश की पराबैगनी  किरणों के  लिए प्रतिरोधी क्षमता रखती है। सीमेंट की टंकी में भी एजोला उगाया जा सकता है। सीमेंट की टंकी में प्लास्टिक सीट विछाने की आवश्यकता नहीं हैं। अब गड्ढे में 10-15 किग्रा. मिट्टी फैलाना है। इसके  अलावा 2 किग्रा. गोबर एवं 30 ग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट 10 लीटर पानी में मिलाकर गड्ढे में डाल देना है। पानी का स्तर 10-12 सेमी. तक होना चाहिए। अब 500-1000 ग्राम अजोला कल्चर गड्ढे के  पानी में डाल देते हैं। पहली बार एजोला का कल्चर किसी प्रतिष्ठित संस्थान मसलन प्रदेश में स्थित कृषि विश्वविद्यालयो के मृदा सूक्ष्म जीव विज्ञानं बिभाग से क्रय करना चाहिए।  अजोला बहुत तेजी से बढ़ता है और  10-15 दिन के  अंदर पूरे गड्ढे को  ढंक लेता है। इसके बाद से 1000-1500 ग्राम एजोला प्रतिदिन छलनी या बांस की टोकरी से पानी के ऊपर से बाहर निकाला जा सकता है। प्रत्येक सप्ताह एक बार 20 ग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट और  1 किलो गोबर गड्ढे में डालने से एजोला तेजी से विकसित होता है।  साफ पानी से धो  लेने के बाद 1.5 से 2 किग्रा. अजोला नियमित आहार के  साथ पशुओं को खिलाया जा सकता है। 

अजोला उत्पादन में ध्यान देने योग्य बातें

1.    अजोला की तेज बढ़वार और  उत्पादन के  लिए इसे प्रतिदिन उपयोग हेतु (लगभग 200 ग्राम प्रति वर्गमीटर की दर से) बाहर निकाला जाना आवश्यक हैं।
2.    अजोला तेैयार करने के  लिए अधिकतम 30 डिग्री सेग्रे तापमान उपयुक्त माना जाता है। अतः इसे तैयार करने वाला स्थान छायादार होना चाहिए।
3.    समय-समय पर गड्ढे में गोबर एवं सिंगल सुपर फॉस्फेट  डालते रहें जिससे अजोला फर्न तीव्रगति से विकसित  होता रहे।
4.    प्रति माह एक बार अजोला तैयार करने वाले गड्ढे या टंकी की लगभग 5 किलो  मिट्टी को  ताजा मिट्टी से बदलेें जिससे नत्रजन की अधिकता या अन्य खनिजो  की कमी होने से बचाया जा सके ।
5.    एजोला तैयार करने की टंकी के पानी के  पीएच मान का समय-समय पर परीक्षण करते रहें। इसका पीएच मान 5.5-7.0 के  मध्य होना उत्तम रहता है।
6.    प्रति 10 दिनों के अन्तराल में, एक बार अजोला तैयार करने की टंकी या गड्ढे से 25-30 प्रतिशत पानी ताजे पानी से बदल देना चाहिए जिससे नाइट्रोजन की अधिकता से बचाया जा सके ।
7.    प्रति 6 माह के  अंतराल में, एक बार अजोला तैयार करने की टंकी या गड्ढे को  पूरी तरह खाली कर साफ कर नये सिरे से मिट्टी,गोबर, पानी एवं अजोला कल्चर डालना चाहिए।
              अजोला की उत्पादन लागत बहुत ही कम ( प्रति किग्रा. एक रूपये से भी कम) आती है, इसलिए यह किसानो  के  बीच तेजी से लोकप्रिय होता जा रहा है और  यही कारण है कि दक्षिण से शुरू हुआ अजोला की खेती का कारवां अब भारत के  विभिन्न प्रदेशॉ  तक तक जा पहुंचा है। इसकी तमाम विशेषताओं  से अभिभूत किसान अपने आसपास खाली पड़ी जमीन में ही नहीं बल्कि अपने घर की छतों पर भी इसका उत्पादन कर रहे है। इस प्रकार दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही खेती योग्य जमीन और  मौसम की अनिश्चितताओ  के  कारण पशुओ  के  लिए हरे चारे के संकट से जूझ रहे किसानो व डेयरी मालिको के  लिए एजोला किसी वरदान से कम नहीं है। इसे घर-आंगन में लगा कर पूरे साल हरा चारा प्राप्त कर सकते है। पशुओं के लिए स्वास्थ्यवर्घक है तो दुध उत्पादन क्षमता भी बढ़ जाती है।
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मंगलवार, 28 अक्तूबर 2014

पशुओं का चारा ही नहीं पौष्टिक खाद्यान्न भी है जई-ओट्स

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्राध्यापक (सस्यविज्ञान बिभाग)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)
                     भारत में अधिकांश कृषि योग्य जमीनें खाद्यान्न, दलहन, तिलहन एवं नकदी फसलों  की खेती के अंदर आती है तथा मात्र 4.5 प्रतिशत जमीन में चारे वाली फसलों  की खेती की जा रही है। पशुओं  के  लिए पर्याप्त  गुणवत्तायुक्त चारा उपलब्ध न होने की वजह से उनकी उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। अतः हमें ऐसी फसलों को  फसल चक्र में सम्मलित करना चाहिए जिससे खाद्यान्न व चारा दोनों की प्रतिपूर्ति हो  सके । जई एक ऐसी फसल है जिससे न केवल पौष्टिक हरा चारा बल्कि मानव उपभोग के  लिए स्वास्थप्रद खाद्यान्न भी उपलब्ध होता है। अब घरेलू और अन्तराष्ट्रीय बाजार में जई उत्पादों की भार मांग है जिसे देखते हुए हम जई की उपज  बढ़ाकर ना केवल देश के नागरिकों की पूर्ति  कर सकेंगे वरन इसके उत्पाद का  निर्यात कर विदेशी मुद्रा भी अर्जित कर सकते है।
            घास कूल की जई फसल (ऐवना सटाइवा) की खेती प्रमुख रूप से पशुओं के लिए हरा चारा और  दाना उत्पादन के  लिए प्रचलित है । भारत के उत्तरी भागों में शीत ऋतु में उगाई जाने वाली यह महत्वपूर्ण चारा फसल है तथा इसके दानों का उपयोग पशु दाना और गरीब लोग अपने भोजन में करते है।   दर असल जई में विद्यमान तमाम पौष्टिक गुणों के  कारण अब यह अमीरों  की रशोई की शान बनती जा रहीं है। स्वाद और  सेहत के लिहाज से जई के  दानों  में अनेक राज छुपे हुए हैं । वास्तव में पौष्टिकता और बहुमुखी गुणों से संपूर्ण जई (ओट्स) की पंहचान सिर्फ दलिया तक ही सीमित नहीं हैं। जई का भोजन में इस्तेमाल काफी लाभकारी है। जई को भाोजन में विभिन्न रूपों  में शामिल किया जा सकता है, जैसे-साबूत जई, दलिया के रूप में, जई चोकर, जई का आटा, आदि। जई के चोकर में घुलनशील फाइबर, प्रोटीन और शुगर होता है। जई चोकर का इस्तेमाल ब्रेड, बेकिंग और नाश्ते के अनाज (सेरेल्स) के रूप में किया जाता है। जई का दलिया भी लो फैट और लो कैलोरी होता है। ये दलिया खाने और पचाने में हल्का होता है। इससे भी कॉलेस्ट्राल कम होता है। जई खासकर उन लोगों के लिए काफी फायदेमंद है जिनमें विटामिन और खनिज की कमी है। जई में ओमेगा-6 और लायोलेनिक एसिड होता है ज¨ रक्त में कोलैस्ट्रॉल की मात्रा कम करने में सहायक साबित होती है। यही नहीं, यह कोलैस्ट्रॉल को बढ़ावा देने वाले तत्वों को भी खत्म करती है। इसके अलावा जई में रेशा भरपूर मात्रा में होती है जो शरीर में ग्लूकोज व इंसुलिन की मात्रा कम करके मधुमेह के खतरे को कम करता है। इसके  नियमित सेवन से  शरीर की र¨ग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। जई का एक और बड़ा फायदा है कि जई खाने से पाचनतंत्र सही तरीके से काम करता है और पेट साफ रहता है। अगर हम इसे खाने में नियमित रूप से शामिल करें, तो जई में पाए जाने वाले ये तमाम गुण हमारे शरीर के पोषण का बेहतर खयाल रखते हैं।


           पशुओं के  लिए भी जई का चारा पौष्टिक एवं स्वास्थवर्धक होता है। इसके हरे चारे में कार्बोहाइड्रेट अधिक होता है। इसके अलावा हरे चारे में 10 - 12 प्रतिशत क्रूड प्रोटीन तथा 30 - 35 प्रतिशत सूखा पदार्थ पाया जाता है। जई का चारा बरसीम या रिजका के चारे के साथ मिलाकर पशुओं को खिलाया जाता है। जई का प्रयोग हरा चारा, भूसा, हे या साइलेज के रूप में किया जाता है। इसका चारा घोड़ों एवं दुधारू पशुओं के लिए उत्तम  माना जाता है । इसमें प्रोटीन अपेक्षाकृत कम होती है, इसलिए इसको दलहनी चारा बरसीम या रिजका के साथ 1:1 या 2:1 के अनुपात में मिलाकर खिलाया जाता है । जई के अनाज से मुर्गी, भेड़, पशुओं तथा अन्य पशुओं के लिए उत्तम दाना तैयार किया जाता है।
                        मानव उपभोग के लिए आजकल बाजार में जई के  बहुत से उत्पाद ऊंचे दाम पर बिक रहे है। इसका दलिया (ओट्स) 150 से 200 रूपये प्रति  किलो की दर से बिक रहा है । पांच सितारा होटल एवं रेस्तरां में  जई  के जायकेदार व्यंजन परोसे जा रहे है।  जई उपज की अब बाजार में मांग निरंतर बढ़ती जा रही है। इस फसल की सबसे बड़ी खासियत है कि जई की खेती में मक्का, धान, गेहूं के मुकाबले लागत कम होने के साथ रासायनिक खाद व कीटनाशकों का प्रयोग भी नहीं करना पड़ता है। जई को पानी भी अधिक नहीं चाहिए।  लिहाजा सीमित संसाधनों  में जई से अधिकतम उत्पादन एवं अन्य फसलों  की अपेक्षा बेहतर मुनाफा अर्जित किया जा सकता है। जई फसल से ज्यादा उपज एवं अधिक आर्थिक लाभ लेने के लिएअग्र प्रस्तुत आधुनिक सस्य तकनीक का अनुशरण करना चाहिए।
फसल के लिए उपयुक्त जलवायु
              जई शरद ऋतु की फसल है । जई की फसल के लिए अपेक्षाकृत ठण्डी एवं शुष्क जलवायु की आवश्यकता पड़ती है। फसल वृद्धि काल के समय 15 डिग्री से 25 डिग्री सेंटीग्रेड  तापक्रम की आवश्यकता होती है। उच्च तापक्रम वाले प्रदेशों में जई की खेती नहीं होती है। जई की खेती 40 - 110 सेमी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है। यह पाले या अधिक ठंड को सहन कर सकती है। परन्तु अधिक समय तक पानी की कमी से फसल वृद्धि और उपज दोनों कम हो जाती हैं।
भूमि का चुनाव 
                  जई की खेती अमूमन सभी प्रकार की जमीनों में की जा सकती है परन्तु अच्छी पैदावार के लिये दोमट मिट्टी  सबसे उत्तम मानी जाती है। इसकी खेती बुलई मिट्टी  से लेकर मटियार-दोमट मिट्टी  में भी की जा सकती है। भूमि में जल निकास का उचित प्रबन्ध होना चाहिए।
खेत की तैयारी
                     जई के खेत की तैयारी गेहूँ और जौ की भाँति की जाती है। खरीफ की फसल काट लेने के पश्चात् पहली जुताई गहरी मिट्टी पलटने वाले हलल से तथा उसके बाद 2-3 जुताइयाँ देशी हल से करके खेत को तैयार कर लिया जाता है। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा चलाना आवश्यक रहता है। जई बोते समय खेत में पर्याप्त नमी आवश्यक है।
उन्नत किस्में
           जई की चारा एवं दाना उपज देने वाली उन्नत किस्मों  का विवरण  अग्र प्रस्तुत है।
यू.पी.ओ.-94: यह बहुकटाई (2-3) देने वाली मध्यम पछेती किस्म है, जो सिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। पौधे 135-140 सेमी. लम्बे होते हैं। पौधे में 8 - 10 कल्ले बनते हैं, बाली लम्बी होती है। प्रति हेक्टेय 500 - 600 क्विंटल  हरा चारा तथा 17-18 क्विंटल क्विंटल बीज प्राप्त होता है। फसल गिरती नहीं, दाने खेत में नहीं छिटकते तथा पाला रोधक है।
ईसी-22034: इसके पौधे लम्बे व सीधे बढ़ने वाले होते हैं। पत्तियाँ चैड़ी और चिकनी होती हैं। बहुकटाई वाली किस्म है तथा चारा हे बनाने के लिए उत्तम रहता है। औसतन 400-500 क्ंिवटल हरा चारा प्राप्त होता है।
ओएस-6: यह एक कटाई वाली किस्म है इसक पौधे लम्बे होते हैं। फसल 145 दिन में पक कर तैयार होती है। कीट-रोग रोधी किस्म है।इससे 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टर दाना उत्पादन प्राप्त होता है। 
बुन्देल जई-581: बहु कटाई वाली किस्म है जो क्राउन रस्ट, लीफ ब्लाइट, उकठा रोगों तथा माहू कीट रोधक है। हरे चारे की उपज क्षमता 440 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर होती है। सिर्फ दानों के लिए लगाया जाए तो 25 से 28 क्विंटल प्रति हैक्टर उपज प्राप्त होती है।
हरियाणा जई 114: इस किस्म से 2-3 चारा कटाइयाँ ले सकते हैं, परन्तु दान उपज प्राप्त करने के लिए पहली कटाई बाद फसल को बढ़ने के लिए छोड़ देने से दानों की अच्छी उपज प्राप्त होती । एक हेक्टेयर से लगभग 200-300  क्विंटल  हरा चारा एवं 12  से 18  क्विंटल दाना उपज प्राप्त होती है।
बोआई का समय
                   जई की बुआई अक्टूबर से लेकर दिसंबर के प्रथम सप्ताह तक कभी भी की जा सकती है परन्तु अच्छी उपज के लिए अक्टूबर का महीना ही बुआई के लिए सबसे उपयुक्त होता है क्योंकि फसल की बुआई जितनी शीघ्र की जाती है उतनी ही अधिक कटाइयाँ  और अधिक उपज प्राप्त होती हैं।
बीज दर व बोआई
              बीज सदैव कवकनाशी  रसायनों जैसे थाइरम या बाविस्टीन  आदि से उपचाारित कर बोना चाहिए। एक हेक्टेयर के लिए 75 से 80 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है।  पछेती बुआई में पौधें में कल्ले कम बनते हैं अतः देर से बुआई करने पर बीज दर 10 प्रतिश अधिक रखना चाहिये। इसकी बुआई कतार विधि से सीड ड्रिल या हल के पीछे पोरा  लगाकर करना चाहिए । कतार से कतार की दूरी 20 से 25 सेंटीमीटर रखना चाहिये। कतारों में बुआई करना  लाभप्रद रहता है क्योंकि छिटकवाँ तरीके से बुआई करने पर 10 से 15 प्रतिशत बीज जमीन के ऊपर रह जाते हैं। बीज की बुआई मृदा में नमी की अवस्था के अनुसार 5-7 सेमी. की गहराई पर की जाती है।
खाद एवं उर्वरक
                  बुआई से पहले खेत में 10 - 12 टन प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की खाद का प्रयोग करना चाहिए। इसके अलावा जई के लिए 80 से 100 किलो नत्रजन 40 से 60 किलो स्फुर व 20 से 30 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर देना चाहिये। कुल नत्रजन की आधी मात्रा तथा स्फुर व पोटाश की पूरी मात्रा बुआई के समय छिड़ककर मिला देनी चाहिये। शेष नत्रजन को  पहली  कटाई के बाद दिया जाना चाहिये।
सिंचाई कब और कितनी 
              जई की भरपूर पैदावार के लिए सिंचाई की पर्याप्त आवश्यकता होती है। पहली सिंचाई बुआई के 20 से 25 दिन बाद करन चाहिये। इसके पश्चात् बाद की सिंचाइयाँ 15-20 दिन के अन्तर पर की जाती है। दाने वाली फसल में फूल व दाना बनते समय सिंचाई देना आवश्यक रहता है। खेत में जल निकास का उचित प्रबंध रखना चाहिये।
खरपतार नियंत्रण
               बुआई के 20 - 25 दिन बाद एक निंदाई करना आवश्यक है अन्यथा उपज तथा चारे की पौष्टिकता कम हो जाती है। खरपतवार के रासायनिक नियंत्रण हेतु 2,4-डी अत्यन्त उत्तम है। जई की फसल 20 से 25 दिन की होने पर 500 ग्राम 2, 4-डी को 500-700  लीटर पानी में घोलकर एक हेक्टेयर में समान रूप से छिड़कना चाहिये।
कटाई का समय
               जई की खेती चारे और दाने के लिए की जाती है। अतः फसल की कटाई तथा उपज, उगाई गई फसल के उद्देश्य पर ही निर्भर करती है। सामान्य अवस्थाओं में जई की फसल की पहली कटाई 50 प्रतिशत फूल आने पर करने से अधिकतम उपज प्राप्त होती है। एक कटाई लेने के  पश्चात फसल को  दाना उपज के  लिए छोड़ देना चाहिए। केवल दाने के लिए उगाई गई जई फसल की कटाई मार्च-अप्रैल में की जाती हैं। फसल के पकने पर पौधे सूख जाते हें। देर से कटाई करने पर बालियों से दाने झड़ने लगते हैं। अतः समय पर कटाई करना आवश्यक है। कटाई  हँसिया से करते है। गहाई पशुओं  की दांय चलाकर या थ्रेसर से की जाती है ।
दाना एवं चारा उपज
                जई के हरे चारे की उपज 400 से 600 क्विंटल  तक प्राप्त हो जाती है। यदि फसल प्रथम कटाई के बाद दाने के लिए छोड़ते हैं तो 220 क्विंटल  हरा चारा, 8-10 क्विंटल  दाना तथा 15-20 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर भूसा प्राप्त होता है। सिर्फ दाने के  लिए उगाई गई फसल से 25 - 30 क्विंटल  दाना व 40-50 क्विंटल  भूसा प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है।
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काबुली चने की खेती भरपूर आमदनी देती

                                                  डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर प्राध्यापक (सस्यविज्ञान),इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि महाव...